मैं मानव हूँ, मन से चलता
मन से बिकता और हँसता-गाता
मन ने माना, जो भी ठाना
मन-तन-धन से उसको पाना
सहज माना तो सहज बनाया
ठान मना तो जितल बनाया
जानना जो मन को आया
जीवन फिर सुखी सहज बनाया
तन को भी जब मन ही माना
बस जरूरत को धन को जाना
धन के खातिर पड़ा जो तन गंवाना
झंझट लाकर धन शून्य ही माना
मन की तन की अलग चाहना
तन को सुविधा मन को सुख है भाना
जब जाना ये तब ये भी जाना
सुख-सुविधा दोनों को है पाना
सुविधा वस्तु से है पाना
सो उतना तो है धन कमाना
सुख है संबंध का ताना-बाना
समझ है जिसका मूल ठिकाना

Rajesh Bahuguna ji

Back