बाबाजी के साथ, जब भी मेरा सत्संग होता रहा, उन्होंने मुझे ध्यान दिलाया कि मुझे तय करना है कि मैं विद्यार्थी की जगह से “जिज्ञासा” पूछ रही हूँ या फिर मैं समझी हूँ और प्रमाण के साथ जीकर उनसे “प्रश्न” पूछ रही हूँ।
कई बार, “जिज्ञासा” शब्द की जगह पर “बाबा जी मेरा एक प्रश्न है”, ऐसा पूछ बैठती थी। बाबा जी बिना थके, संवाद को तभी शुरू करते थे जब मैं अपना सत्यापन रखती थी, कि मैं सकारात्मक जगह से, समझने के लिए पूछ रही हूँ यानी “जिज्ञासा” कर रही हूँ। यह मेरे अध्ययन का पहला घाट रहा।
अध्ययन की प्रक्रिया में, शब्द से अर्थ, अर्थ से वस्तु की दिशा में, मैंने नागराज जी (बाबाजी) से पूछा, “पढ़ते पढ़ते मेरा ध्यान भटक जाता है। इसका कोई समाधान है क्या?” उन्होंने कहा, “हाँ।
उत्तर आया,”समाधान के लिए, परस्पर विश्वास के लिए, अभय के लिए और सह-अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए पढ़ रही हूँ, ऐसा बार बार स्मरण में लाओ।” यह मेरे अध्ययन में दूसरा घाट रहा।
अध्ययन के क्रम में अनेक घाट आए। एक बार मैंने बाबाजी को कहा कि आप जो कहते हैं, वह मुझे याद नहीं रहता है। उन्होंने कहा, ‘जब सुनते हो तो लिखा मत करो’। मुझे यह सुनकर बड़ा ही अचंभा हुआ। मैं लिखूंगी नहीं तो स्मरण में कैसे आएगा। बाबाजी ने कहा, अब की बार हमारे साथ सत्संग में आप कॉपी पेन लेकर मत बैठिएगा। मैंने बाबाजी की बात मान ली और पूरे दस दिन, सुनती रही। उस दिन बाद, मुझे उनकी बात स्मरण में आने लगी।
कुछ महीनों बाद, बाबाजी ने मुझे कहा, ‘जीने के लिए पढ़ो’। इस बात को उन्होंने दोहराया। मुझे उनकी यह बात स्वीकार हो गई।
अभी अध्ययन की यात्रा में एक और घाट आना बाकी था।
एक बार मैंने स्वेच्छा से, नागराज जी के समक्ष प्रतिज्ञा ली कि ‘इस शरीर यात्रा में, मैं अनुभव करूंगी’।
दो महीने के पश्चात, बाबा जी ने मुझसे सीधा एक सवाल पूछा, ’ अनुभव करना है या नहीं?’
मैंने भी उनको सीधे-सीधे उत्तर दिया, ‘हां बाबा जी अनुभव करना है।’ आगे बाबा जी ने दोबारा जोर से पूछा, ‘अनुभव करना है या नहीं?’ मैंने भी दृढ़ निश्चय से उत्तर दिया, ‘हां, बाबा जी अनुभव करना है।’
इस घटना को मैंने स्मरण के किसी कोने में रख दिया।
2016 में बाबा जी का शरीर शांत हो गया। छह साल बाद, एक दिन, दिल्ली में मैं गाड़ी की सामने वाली सीट पर उदास बैठी थी। उसी वक्त, दम से, वही घटना मुझे स्मरण हुई। ‘अनुभव करना है या नहीं?’
मुझे उस क्षण, ऐसा लगा कि मैं वही विद्यार्थी हूँ जिसने अध्ययन के पहले, दूसरे, तीसरे, अनेक घाट को पार किया है।
बाबाजी, वही गुरु हैं, जिन्होंने अनेक घाट पार लगाने में मार्गदर्शन दिया है। साल बीत जाएं, जगह बदल जाए, गुरु-शिष्य संबंध, वही रह जाता है, कभी बदलता नहीं है। गुरु-शिष्य संबंध में वो ताकत है, जिससे बाकी सारे संबंध एकसूत्र हो जाते हैं, ऐसा मुझे समय-समय पर दिखाई दिया।
इससे जुड़ी एक घटना याद आ रही है। एक बार अमरकंटक में, अनुभव शिविर में, मैं और बालमुकुंद जी आए थे। उत्सव का समापन हो चुका था और सभी अपने घर जा रहे थे। मैं खाना परोसने के पश्चात खुशी-खुशी बाबाजी से मिलने आई।
बाबाजी ने पूछा, ‘बिटिया, आपको अनुभव कब होगा?’ मैंने तपाक से बोला, ‘बाबाजी पहले की बात और थी, अब मेरा विवाह हो गया है। अब अनुभव मुश्किल है, थोड़ा ज्यादा टाइम लगेगा।बाबाजी ने उत्तर दिया, ‘आप दोनों एक दूसरे के साथ अच्छे से जी लेंगे, तो अनुभव हो जाएगा।’ फिर मैंने बोला, ‘ठीक बात है बाबाजी, मेरा अनुमान है कि एक साल तो नहीं, मेरे हिसाब से दो साल में हो जाएगा।’ बाबाजी बोले, ‘एक मकर संक्रांति के बाद दूसरी मकर संक्रांति में आप अनुभव की घोषणा करेंगी।’
मैंने उत्तर दिया, ‘हाँ।’
अब तो कई मकर संक्रांति गुज़र चुकी हैं। बाबाजी का शरीर भी शांत हो चुका है।
गुरु-शिष्य संबंध वैसा का वैसा ही है। संबंध में ली गई प्रतिज्ञा भी वैसी की वैसी ही है।

Vidhi
This is an excerpt from the book,”Charitra Chitran”.