• गुरु -वंदना*


गहरे अंधेरे,भ्रम के फेरे,
संशय के घेरे में सहमा-सहमा उलझा इंसान,
खोज रहा -जाऊं कहाँ,
खुद को लगाऊं कहाँ,
पाऊँ कहाँ स्वयं का सम्मान,
गहरी अतृप्ति,
कसकता अधूरापन भुलाऊँ कहाँ,
हो जाऊं कैसे विश्वासवान।

करुणा यूँ बरसी,जगी जिज्ञासा,
प्रबोधन द्वारा हुआ लक्ष्य का संधान,
मिली झलकियां सत्य की ,धर्म की, न्याय की।
भाया सह-अस्तित्व ज्ञान।।

समष्टि में अभय,परिवार में समृद्धि, स्वयं में समाधान।
यूँ हो उठे हम अस्तित्ववान।।

आलोकित हुई चेतना, निज स्वरूप जब हुआ भासमान,
भावपूर्णता की राह प्रशस्त लगे, बढ़ने लगे जब संबोधि विवेकवान।

संबंध की सही सही अब हुई पहचान,
निर्वाह की निरंतरता अखंड,
समझ से सजे प्रेरक -प्रमाण।

भाव- शुद्धि से सजा है ये वर्तमान,
शिल्पकार की कला उन्हें बना रही है नित अर्थवान।
खुद से खुदी की भेंट कराकर क्षण में बनाया मूल्यवान।।
पाया स्नेहसिंचित सान्निध्य का वरदान।
पूज्य गुरुवर की भाव वंदना ,कृतज्ञता से अभिभूत-समर्पित प्रणाम’।

सोनाली भारती

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