मृत्यु संस्कार
ज़िंदगी में कई बार हम ऐसे मोड़ पर आ कर खड़े हो जाते है,थम जाते हैं,जहाँ मृत्यु यानी शरीर त्यागना,किसी अपने प्रिय का साक्षात सामने दिखता है। कभी कभी कुछ देहावसान आकस्मिक होते हैं,और कभी थोड़ा समय मिल जाता है,सेवा करने का,स्नेह और कृतज्ञता,खुशहाली और साथ-साथ की खूबसूरती का प्रभाव दिखाने का। यूँ तो ये सेवा अवसर नित्य होना चाहिये,नित्य ही उत्सव है,पर ये हमको समझ नहीं आता इतनी जल्दी।
संस्कारों में यूँ तो सभी महत्वपूर्ण हैं पर अंतिम समय जो देहत्याग्ने वाला है,वो देह त्यागते समय,सुख,संतुष्टि,ख़ुशहाली साथ ले कर जाता है या दुख ये परिजनों पे निर्भर करता है।उनकी खुशहाली और सेवा पर निर्भर करता है। जीवन अगर देह को त्यागते समय खुश ज़्यादा रहे तो अगली शरीर यात्रा सुगम हो जाती है।
हाल ही इस मोड़ से मैं और मेरा परिवार भी गुज़रा।उसका जीवंत उदाहरण आप लोगों के सामने कृतज्ञता पूर्वक प्रस्तुत कर रही हूँ। शरीर यात्रा में,कर्तव्यों और दायित्वों को पूरा करने की कड़ी में,कायिक,वाचिक,मानसिक,कृत,कारित,अनुमोदित सभी नौ तरह से किये गए कर्मों में,ये मृत्यु संस्कार भी एक अनिवार्य पृष्ट है जीवन यात्रा में लक्ष्य को पूरा करने का।
मेरे और मेरे परिवार के साथ भी ऐसा ही हुआ।माँ तो चट-पट चले गए थे,पर उनकी सेवा और उनके साथ बिताए खूबसूरत पल ,बहुत ही तृप्तिदाई रहे।
उसके बाद पिताजी…
23rd दिसंबर 2024 को जब दो दिन अस्पताल में रख कर पिताजी को वापस घर लाए तो उन्होंने तीन बातें मुझे अगले दिन सुबह बोलीं। पहली कि मुझे अस्पताल में भर्ती मत करना दूसरा की मुझे कोई पाइप्स मत लगाना और तीसरा कि मुझे अकेले मत छोड़ना।उनकी हालत अच्छी नहीं थी,पर सभी बात मैंने मान लीं।घर में ही उनके इलाज की व्यवस्था करन लगी ।
इस दौरान याद आने लगा वो समय जब मेरी बड़ी माँ ने मेरी दादी माँ और बड़े पिताजी की,मेरे मम्मी पापा ने मेरी भुआसा की,मेरे सभी मामा सा मामी सा,मासी और परिजनों ने मेरे नाना सा नानी सा की,जेठानी जेठ जी यानी भाभीजी भाई सा और परिवार ने,देवर देवरानी,नंद नंदोई ने बड़ी माँ (बड़ी सासू जी ) की,मेरी मामी सासु जी और परिवार ने मेरी नानी सासू जी की और मैंने ख़ुद ने ( बच्चों और सहयोगी परिजनों सहित) मेरी सासू माँ की सेवा घर में ही की थी। सभी डॉ नर्स साथी सहयोगी परिजन तब भी मदद करते थे साथ देते थे,घर में ही बुजुर्ग परिजनों को रख कर उनके शरीर त्यागने तक उनकी सेवा करते थे।
पिताजी,जिनको कि हम बुज़ीबा बोलते थे,का स्वास्थ ठीक तो नहीं लग रहा था और उनकी इच्छाओं को देखते हुए ,परिवार सभा बुलाई। उस समय सभी बेटियां,दामाद बेटाजी यहीं थे।
सभी बच्चों को दादा सा की इच्छा बताई और जल्द ही सभी की सहमति बन गई कि उनको घर में ही रखेंगे और यहीं उनकी खुशहाली के साथ,मन-तन-धन से सेवा करेंगे।अभी तो उनकी ribs (अंतड़ियाँ) टूटीं थीं और उनको तीन सप्ताह पूरा बिस्तर पर ही रहना था।
इसके अनुसार उनकी सुविधा को ध्यान में रखते हुए,घर पर ही उनके लिए बिस्तर,ऑक्सीजन मशीन,नेबुलाइज़र,ड्रिप स्टैंड,खाने की टेबल,व्हील चेयर,सब उनकी पसंद का,उनके रूम में व्यवस्थित किया गया।
40 साल से उनके सहयोगी सेवा और साथ दे ही रहे थे पर रात के लिए एक और सहयोगी की व्यवस्था करी गई। परिवार में से कोई ना कोई रात में उनके साथ होता ही था।एक नर्स बिटिया सुबह शाम आयेंगी ये भी व्यवस्था हो गई।
कुछ drs का एक पैनल बना दिया गया जिसमें एक मेरे देवर डॉ भाई जी थे,कुछ और बाहर के थे, बाक़ी रायपुर के ही dr थे जो यथा समय,यथा ज़रूरत बुज़ीबा को देखने,मुझे फ़ोन पे गाइड करने हमेशा तैयार रहते थे |
यथा समय,यथा ज़रूरत बुज़ीबा को देखने,मुझे फ़ोन पे गाइड करने हमेशा तैयार रहते थे,जिसके लिए मैं और मेरा परिवार हमेशा कृतज्ञ रहेंगे।
क्यों की बुज़ीबा का खाना कम था और उनको कुछ इंजेक्शन,ग्लूकोस लगने ही थे तो उनकी वेन ढूँढने एक डॉ भाई जी के सहयोग से,नर्स बिटिया मिलीं जो पांव में उनकी नस ढूँढ पाई और ड्रिप लगना,इंजेक्शन लगने शुरू हुए।
दो अस्पताल और एक मेडिकल दुकान से दवाइयों और इमरजेंसी में सहयोग की व्यवस्था हो ही गई थी।
ड्राइवर बेटा जी हमेशा घर में ही रहते हैं,बुज़ीबा के साथ रहते थे,उन्होंनेभी सभी सहयोगियों के साथ अपनी कमर कस लिए दे।
क्यों कि परिवारजन आते जाते रहेंगे इसलिए रुकने और भोजन आदि की व्यवस्था और दुरुस्त कर दी। सभी ने हमेशा की तरह खूब सेवा सहयोग किया।
बड़ी दीदी जी भी आ गई थीं,चली गई फिर आईं और फिर गई। फिर आईं। ये सिलसिला चलता रहा।दो भुआ सा भी आ गई थीं।
मोड़ स्थिति में तब आया जब हड्डी वाले डॉ बेटा जी,जो कि पहले से ही डॉ पैनल में थे,ने तीन सप्ताह बाद review करवाने कहा।इस बार MRI करवाना था।बुज़ीबा की पेशाब 24 घंटे में 100ml हो गई थी वो भी ध्यानाकर्षण का विषय था।बुज़ीबा हमेशा से अस्पताल जाने,इंजेक्शन लगवाने,कोई भी स्क्रीनिंग करवाने के लिए आसानी से तैयार नहीं होते थे।अब तो उनको potty ( शौच ) किए भी तीन सप्ताह से अधिक हो गया था,तो उनकी इच्छा हो ना हो,उनको बच्चों समान राजी कर उनके पसंद के रेडियोलॉजिस्ट के पास भेजना था।
कोई हमारी बात सुने उसके लिए ये ज़रूरी होता है कि पहले हम उनकी बातें सुने,माने,और उनको खुश रखें।विशेष कर बुजुर्ग और बच्चे,वो भी मरीज़ हों तो बड़े ट्रिक्स अपनाने होते हैं।
बहरहाल बुज़ीबा तैयार हो गए एमआरआई, कुछ एक्सरे और पेट की सोनोग्राफी करवाने। हमने बिन देरी किए इंतज़ाम किए और उनकी शारीरिक वेदना के बाद भी उनको ले जाया गया।
बुज़ीबा का खाना धीरे धीरे कम होते जा रहा था। उनकी आवाज़ भी साफ़ नहीं होती थी,बोल भी कम ही पाते थे।वो दिन भर सोते रहते थे।
किसी भी व्यक्ति का शरीर त्यागना जब भी होता है,और अकस्मात् ना हो,तो ये देखा गया है कि उनकी कर्म इंद्रियाँ ( motor organs) जैसे जिव्हा (speech),हाथ (hands-grasping),पाँव (feet),गुदा (anus), और लिंग (genatils/reproduction organ) धीरे धीरे काम करने बंद करते जाते हैं। साथ ही ज्ञान इन्द्रियाँ ( sense organs) शब्द,स्पर्श,रूप,रस,गंध भी शट डाउन मोड में शनै: शनै: चली जाती हैं। बुज़ीबा के साथ भी यही हो रहा था।
13th January 5.30pm बुज़ीबा की रिपोर्ट्स आईं,और उनको देख मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई।इसकी अपेक्षा नहीं थी। ओह! तो ये कारण था उनके स्वास्थ का तीव्रता से गिरने का। डॉ से फिर सलाह की। उन्होंने मेरे शक को पुख्ता कर दिया पर एक ब्लड टेस्ट करवाने बोला। मैंने शौर्य बेटा जी ( बड़े बेटा जी ) को बोला आप जहाँ भी हैं घर आयें।
ये तय हुआ कि डॉ भाई जी ने जो ब्लड टेस्ट करवाने बोला है वो करवाया जाये।
पर बिल्ली के गले में घंटी बांधने जैसा काम था ये। बुज़ीबा ब्लड टेस्ट के लिए तैयार नहीं हो रहे थे। ये भी तय किया कि ब्लड टेस्ट होते तक,रिपोर्ट आते तक,ये बात किसको नहीं बताई जाएगी।
16th January 12.30pm संयोग वश ऐसी परिस्थिति बन गई कि बुज़ीबा टेस्ट के लिए राजी हो गए और उनका ब्लड टेस्ट हो गया।
16th January 4.15pm बुज़ीबा की रिपोर्ट आ गई ।जिसका शक था वो कन्फर्म हो गया। अगले दिन हम यानी मैं और शौर्य बेटा जी डॉ के पास गए और पूरी बीमारी समझी, ये भी सुना कि अब उनके पास वक्त बहुत कम है।
इसको पचाना था अब। वो इंसान तो अगले पच्चीस सालों के लक्ष्य ले कर बैठे थे।हताशा में आत्महत्या कर लेता हूँ ज़रूर कहते थे,पर उनको तो जीने का बहुत शौक था,वो यकायक इस बीमारी के गिरफ्त में,और अब जल्दी चले जायेंगे ?
फिर से परिवार सभा बुलाई गई। हम चार पीढ़ी साथ रहते थे। ये बात बहुत गर्व से मैं कहती थी,पर उस दिन मैं यकायक बड़ी हो गई,और परिवार के सामने सभी बातें रखीं।हमने कुछ बातें आपस में तय कीं- जैसे बुज़ीबा को उनकी बीमारी के बारे में नहीं बतायेंगे।बल्कि तुरंत तो किसी को नहीं बतायेंगे। कमरे में सन्नाटा था,सभी की आँखें नम थीं,और सब को अपना अपना समय चाहिए था इसको पचाने के लिए। ये तय हुआ कि उनकी इच्छा अनुरूप अब और चाहे कुछ हो जाये हम घर में ही सेवा करेंगे। दिन रात सब मिल सेवा करेंगे।सभी खुशहाली का वातावरण रखेंगे,उनके सामने बीमारी से संबंधित कोई भी चर्चा नहीं होगी।
यूँ तो मुझे याद नहीं पड़ता कि पिछले चालीस सालों में मैंने उनको पलट कर जवाब दिया हो या कटु शब्द बोलें हों,चाहे जो भी बर्ताव उन्होंने मेरे और मेरे परिवार के साथ किया हो।इसलिए इतने सालों से उनका कड़वा,अच्छा,बुरा,तीखा,ज़हरीला,गुस्सा,हँसी,आवेश,पैसे के लिए हमको तड़फाना,उनका बड़प्पन,उदारता उनकी व्यापारिक बुद्धि और उनकी ज़बरदस्त याददाश्त,उनके शौक़,उनकी हर अच्छी-बुरी बात सुनने की आदत हो गई थी।
उन्होंने मुझे सब से कठिन समय दे कर मेरे अंदर के खूबसूरत इंसान को तराश कर बाहर निकाल दिया था। शायद नियति ने इसलिए ही उन्हें मेरे लिए चुना था।उनके प्रति कृतज्ञता मुझे हमेशा इसलिए बनी रही कि एक तो इनको ( श्रीमानजी ) जन्म दिया,दूसरा खूब ग़रीबी के दिन से ले कर अभी तक , कड़क श्रम कर शौहरत और नाम कमाया।उनके लिए कोई काम छोटा बड़ा नहीं होता था और तीसरा उनके कारण हमारे सिर पर छत थी। इतना काफ़ी था मेरे लिए, माँ बुज़ीबा की सेवा करने के लिए,बिन किसी अपेक्षा,बिन किसी शर्त के। इसलिए दोनों के प्रति कृतज्ञता बनी रही।
फिर माँ के जाने के बाद मेरे लिए वही थे।मेरे पिताजी तो बहुत पहले अपना शरीर त्याग चुके थे। तो बुज़ीबा थे मेरे पिताजी जिनसे हर मुद्दे पे बात होती थी चाहे USA की अर्थव्यवस्था या चुनाव हों या चावल का समर्थन मूल्य हो। उन्होंने मुझे IAS की ट्रेनिंग तो दे ही दी थी।
आज मुड़ के पिछले दो साल देखती हूँ ,तो उनके वजन के गिरने का कारण,उनकी वेदना,उनका शरीर और मन से टूटना,उनकी सारी पीड़ा समझ आ रही थी।शरीर की वेदना तो वो सह लेते पर संबंधों की वेदना पर उनको फफक फफक के रोते भी देखा।उनकी बातें मैं घंटों सुनती रहती थी।धर्म और न्याय पे पिछले दो सालों में हमने कितनी ही बार चर्चा की होगी।मेरे गुरु श्री ए नागराज जी क्या कहते हैं इस पर भी चर्चा की। वो हमेशा चाहते थे कि मैं सह-अस्तित्ववाद दर्शन के सेशंस लेते रहूँ,क्लास मेरी चलती रहे,घर में।
खैर,हम सभी ने और अधिक कमर कस ली थी।बुज़ीबा की हालत दिन पर दिन नाज़ुक होती जा रही थी। धीरे-धीरे इन्द्रियों का काम करना शीथल पड़ रहा था। बस उनका दिमाग़ ( जीवन) सुनता सब था। वो दिन भर कराहते रहते,कभी एक दम से उत्तेजित और वायलेंट हो जाते,कभी कहते बस अब मुझे जाने दो,मुझे अब मत रोकना बिन्नी जी ( राजस्थान में बहू को ऐसे ही संबोधित करते है) जैसे शरीर त्यागने का भरसक प्रयास कर रहे हों।उठा ले,उठा ले दिन भर कहारते कहारते बोलते रहते थे और हम उनको उठाते बैठते,लेटाते रहते थे।
उनके शरीर त्यागने से एक दो दिन पहले जब उनका उठा बैठना हिलना डुलना लगभग बंद हो गया था,तब उनसे बात करते करते कल्पना में ही उनको उठाती बैठाती घुमाती थी।
हम सभी के कंधे और पीठ जवाब दे रहे थे।पांव में भी दर्द आ रहा था,पर कोई कुछ नहीं बोल रहा था।बाम मसलते ,चाय की चुस्की लगाते और फिर सेवा शुरू। किसी को नहीं बोलना पड़ा कि कौन रात को जागेगा और कौन दिन में,सब अपने आप,अपना समय निर्धारित कर लिए थे।
5-6 बार लगा कि बस अब आखरी है। पूरा परिवार आ जाता,सब को वो बुला लेते,सब से माफी माँगते,प्यार करते-दुलार करते,कुछ ना कुछ ज़िम्मेदारी देते या बताते कि आगे क्या करना है।
दो तीन बार तो यूँ भी हुआ कि वो व्यक्ति जिसने मुझे कभी रंग पे तंज कसे थे,जिसने मुझे क्या बुरा भला ना कहा होगा,कहते कि सब को बाहर भेज दो बिन्नी जी और आप मेरे पास रहो,मुझे सुनो,मैं दो बार नहीं बोलूँगा।वाह रे नियति क्या नियम से चलती है।जिस आदमी के नाम से कभी मेरी साँसें रुक जाती थीं डर के मारे,जिसका ख़ौफ़ इतना था कि उन्होंने कुछ बोल दिया यानी मेरा दिन रात का चैन चले जाता था।लगभग १८ साल तो मैंने उनसे सिर्फ़ हाँ - ना या बहुत कम वाक्यों में बात की होगी।जिसके सामने मैं ओंठ तक घूँघट करती थी वो मुझे हाथों में थाम रो रो के माफी माँगते अच्छे नहीं लगते थे।
उनकी पीड़ा असहनीय होती जा रही थी।बातें भी वो बेतुकी सी करते थे कभी।कभी तो समझना पड़ता था कि क्या बोलना चाहते है।क्या बोल रहे हैं।उनकी पीड़ा और इस बीमारी में डॉ के निर्देशानुसार नारकोटिक दवाइयाँ और साइकोसोमैटिक दवाइयों के इंजेक्शन या स्प्रे देने पड़ते थे। मेरी उधेड़बुन अलग थी। कभी लगता था हॉस्पिटल ले जाऊँ क्या,फिर वादा याद अता था।बुज़ीबा को भी लग गया था कि वो अब नहीं बचेंगे। वो ख़ुद इंजेक्शन और नींद का फुस फुस (स्प्रे) माँगने लगे थे।
अब वो हम लोगों को हमारी आवाज़ या हमारे स्पर्श से पहचानते थे।
मुझे उनका वो कर्म और न्याय पे बातें करना याद आया। मैंने उनको श्री ए नागराज जी बाबाजी का लिखा मानवीय कर्म दर्शन पढ़ कर सुनाना शुरू किया। विशेष कर अध्याय -2 उपासना और विवेक।
साथ ही स्नेही अनामिका बेटा जी का लिखा गया जो विद्यालय में गया जाता है नमन गीत, वो भी सुनाती थी।
बोल हैं-
जन्म पा कर सेवा पा कर खुश होता है मेरा मन,खुश हो कर हाथ जोड़ कर,अभिभावक को करूँ नमन,अभिभावक को करूँ नमन।
स्नेह और सहयोग पा कर खुश होता है मेरा मन,खुश हो कर हाथ जोड़ कर,भाई बहन को करूँ नमन,भाई बहन को करूँ नमन।
पढ़ लिख कर,ज्ञान पा कर खुश होता है मेरा मन,खुश हो कर,हाथ जोड़ कर गुरु जनों को करूँ नमन,गुरु जनों को करूँ नमन।
इसकी को गाते गाते ही मैं सारे संबंधों को जोड़ दिया करती थी। जैसे अभिभावक के साथ उनके माता पिता,उनकी भुआसा,वो तमाम लोग जिन्हें वो अभिभावक के रूप में स्वीकार करते रहे और उस कृतज्ञता को दोहराती थी जब वो अपने कंधों पर बोरी ढोते थे,जब घर में अनाज नहीं होता था और कुछ लोग उनकी मदद कर जाते थे।
बहुत ही अहम बात कि मुझे ऐसा लगता था कि बहुत ख़ुश होकर उसको सुन रहे हैं क्योंकि उनका हाथ मेरे हाथ में होता था और वो स्पर्श मज़बूत होता था,उनके भाव समझ आते थे।
जब स्नेह और सहयोग पाकर वाली लाइन आती थी तो उसमें साथी ही सहयोगी से ले कर तमाम उनके मित्रों को लेके सारे लोगों को स्मरण कराती थी ,जिनकी उन्होंने मदद पाई हो,जिन्होंने उन पे उपकार किए हों,मन,तन या धन से-समाधान से।या जिन लोगों के लिए बुज़ीबा ने यही किया हो और ऐसे कई लोग थे जिनकी ज़िंदगी माँ बुज़ीबा के कारण समृद्ध हुई थी।
इस तरह से इस शरीर यात्रा में उन्होंने जो भी किया पाया वो चीज़ें काफ़ी cover हो जाती थी कृतज्ञता cover हो जाती थी और इस दौरान मेरे जो पोते जी है रियांश बेटा जी जो अभिभावक विद्यालय में ही पढ़ते हैं और उन्हें ये गीत याद है। वो भी ये गीत बड़े दादासा को गा कर सुना देते थे। जिससे कृतज्ञता गीत या नमन गीत हम कह सकते हैं तो ये इक तरीक़े से उनके लिए सुखद हो गया था ।
बाँसुरी में भी इस गीत को भी बजा देती थी। नवकारमंत्र,उनके पसंद के कुछ गाने आदि भी बजा देती थी। उनका रेडियो और कारवां बहुत धीमी आवाज़ में उनके पास कभी कभी चला देते थे। उनको पुराने गाने सुनने का बहुत शौक था।
आखरी वाली कुछ लाइन्स में उनका अपना आस्था वाला हिस्सा ज्ञान पा कर गुरु जनों को करूँ नमन भी कवर हो जाता था।
हालाँकि उन्होंने किसी भी किस्म के भोजन त्याग के लिए मना कर दिया था तो जब तक वो गुटकते रहे उनको थोड़ा थोड़ा उनकी पसंद का लिक्विड बना के हम सभी खिलाते रहे।
सभी परिजन भी सेवा में आस्था वश जो सुनाना चाहते थे सुनाते रहते थे।
4-5 बार बुज़ीबा की हालत एक दम बिगड़ी और फिर संभल भी गई।
इस दौरान घर के बड़ों ने उन से वसीयत बनवा ली थी उनके होशों - हवास में।
मेरा वो ममता वाला भाव उमड़ उमड़ के आता और जब वो पीड़ा में कराहते तो उनको बाहों में भर लेती थी,उनके चेहरे को हाथ में ले माथे को चूम लेती थी,उनको जब आवाज़ सहन नहीं होती तो हम भावों में बात करते थे। मैं उन्हें धीरे से कान में बोल के जाती या कमरे में जा कर उनको कहती कि बुज़ीबा और क्या क्या कर सकते हैं हम?
कई ऐसी बातें हुईं जो मैंने भावों में उनको बोलीं,और उन्होंने सुनी। जैसे मैं उनको बोलती थी कि जिनको भी आप शरीर त्यागते समय अपने पास चाहते हों,ऐसा हो कि वही आपका हाथ थामे,वही आप के पास रहें। और यही हुआ।
30th जनवरी को उन्होंने मुझ से पूछा बिन्नी पूर्णिमा कब है। मैंने कहा बुज़ीबा कल अमावस्या गई है तो ख़ुद बोले यानी 15 दिन बाद।
15 दिन तक हम स-परिवार खूब ताल मेल से,स्नेह पूर्वक,सिर्फ़ और सिर्फ़ सहमतियों और समाधान के साथ,खुशहाल वातावरण में,उनकी सेवा करते रहे। दिन रात। उनका असहनीय दर्द देख कई बार हम लोगों को कंपकपी हो जाती थी।
15 दिन बाद यानी 12th फ़रवरी को पूर्णिमा थी। भोर 4 बजे फ़ोन आया बहू बिटिया और नर्स बिटिया का ( 2-3 दिन से मैं अपने कमरे से ही रात में बुज़ीबा के पास आना जाना कर रही थी,12.30 बजे उन्हें इंजेक्शन दे कर आई थी) फ़ोन आया कि दादा सा,सक्शन करवाना चाह रहे हैं,जब कि उनको तकलीफ़ खूब होती थी। उनका सुपरफिसिअल सक्शन हुआ और मुँह साफ़ किया। उसके बाद वो सो गए।
उस दिन हमेशा की तरह हम लोग सुबह से बुज़ीबा के पास थे। मैंने उन्हें सभी इंजेक्शन और उनकी फ्रक्ट्रोज़,DNS ड्रिप सब शुरू कर दी थीं। (पता नहीं क्या हुआ उस दिन मैं जल्दी नहा ली।)
उनका O2 गिरता - संभलता जा रहा था। उनको हाई फ्लो ऑक्सीजन पे रखना पड़ रहा था। उनकी पल्स भी गिरती जा रहीं थीं। कभी हल्का सा improvement दिखता pulse और O2 में। उनकी ड्रिप जानी अपने आप बंद हुई तो फिर से फ्लश कर के शुरू की। BP उनका आना बंद हो रहा था। कभी आता कभी नहीं। पहले जो हालत ख़राब हुई थी इस बार अलग थी। इस बार कराहना,हाथ हिलाना,सब बंद था। हाँ ये लग रहा था कि वो मुझे सुन रहे थे।
सभी को मैंने तुरंत चाय नाश्ता करने भेजा । ताकि शोर ना हो। और मैं पूरे concentration से अपना कर्तव्य पूरा कर सकूँ।
10am-सभी लोग दिनचर्या में व्यस्त थे। शौर्य बेटा जी ऑफिस चले गए थे। लांड्री प्लांट शुरू हो गया था नियमित समय से। मंदिर में पूर्णिमा की पूजा की घंटियाँ बज रही थीं। मैंने बुज़ीबा को आखरी बार सत्यबोध,अहिंसा,अपरिग्रह,अस्तेय,
असंग्रह,विश्व के प्रति मूल्य भाव,सभी सार्थक शब्द मंत्र हैं,शरीर संवेदना संयंत रहने से मन की पवित्रता वाले 2-3 पेज खूब भाव से मन ही मन सुनाये। ध्यान उनकी स्थिति पे भी था। उनके कान के पास नवकारमंत्र और मांगलिक भी सुनाया,रोज की ही तरह।
रेशमा बिटिया ( नर्स बिटिया) जो की 9 बजे आती थीं सुबह,भी उनकी स्थिति पे नज़र रखी थीं।
10.15am -ऑक्सीमीटर में उनकी पल्स और O2 दिखना बंद हो गए और pulse देखने से नब्ज़ धीमे हो चली थी। अब लग गया था कि वो शरीर त्यागने वाले हैं पर ये भी लगता था कि नहीं वो रिवाइव कर लेंगे। थोड़ा सा रिवाइव करते भी थे। हमने अब उनकी ऑक्सीजन बंद कर दी थी। मेरे मन में बहुत शांति थी और मन ही मन नमन गीत भी चल रहा था। बीच बीच में बुज़ीबा बुज़ीबा आवाज़ दे रही थी। पर वो शांत थे। उनकी साँसें उखड़ने लगी थीं। मैंने उनको CPR देने का प्रयास किया। रेस्क्यू करने की कोशिश की।
10.30am- शौर्य बेटा जी को फ़ोन लगाया कि आप आ जाएँ और अभी बिना किसी को लिए अंदर आयें। अब बुज़ीबा की सासें 3-4 सेकंड में एक बार आ रही थीं। शौर्य बेटा जी आए और हमने आँखों ही आँखों में बातें की।
10.40am- फिर से हाई प्रेशर ऑक्सीजन शुरू की । बीच बीच में ये हम कर ही रहे थे। पर बुज़ीबा एक दम शांत थे। उनके एक तरफ़ मैं थी हाथ पकड़े उनका,अपना वादा पूरा करते हुए कि उनको अकेले नहीं छोड़ूँगी और एक तरफ़ शौर्य बेटा जी ने उनका हाथ पकड़ा हुआ था।
स्थान वही था जहाँ माँ ने शरीर त्याग किया था। बुज़ीबा ने जीते जी माँ का सम्मान नहीं किया था पर जाते जाते इतनी बड़ी हवेली में उन्होंने माँ के कमरे में उस ही स्थान पर रहना पसंद किया,आखरी दिन बिताए,जहाँ माँ ने अपने कई साल बिताए थे उनके बिन।
नियति का चक्र।
अब ये तय था कि उनके शरीर त्यागने का समय आ गया है।
11.02am - बुज़ीबा ने आखरी साँस ली। सुकून की साँस। शांति और बिन हो हल्ले के,बिन पीड़ा के उस व्यक्ति ने अपना शरीर त्याग दिया। एक बार लगा कि वो फिर रिवाइव होंगे,फिर साँस लेंगे।अगले दस मिनट तक हमने इंतज़ार किया।पर वो उनकी आखरी साँस थी।
बुज़ीबा को प्रोस्ट्रेट कैंसर था जो उनकी ना समझी से उनके पाँव के नाखून से ले कर सिर की हड्डी हड्डी तक,पूरे शरीर में फैल चुका था। उनकी उम्र 88 वर्ष थी और उनके विचारों में आने वाले 25 सालों के लक्ष्य और योजना रहती थी।
कृतज्ञता dr’s पैनल,डॉ संजीव जैन बड़े भाई-समधी भाई,डॉ कैसर सलीम मेरे बचपन के सहपाठी मित्र,देवर भाई डॉ प्रणय चौधरी,डॉ अभिषेक जैन बेटा जी,मशवरे के लिए बालको कैंसर & रिसर्च सेंटर के डॉ नीलेश जैन,डॉ एच पी सिन्हा भाईजी के लिए।नर्सेस बिटिया,कोठारी परिवार के परिजनों,काका सा ( दोनों) काकीसा ( दोनों) बहनों-हुकुम ,मेरे जेठ जेठानी,सभी देवर देवरानी,मेरी छोटी बहन बहनोई-नीरजा संजीव,साथी-सहयोगी,मेरे बच्चों शौर्य बेटा जी,अभिषेक-वल्लभी बेटा जी,हमारी बेटियां साक्षी निष्ठा और आरती बिटिया,तीनो दामाद बेटा जी अल्बर्टो,अमित और दुष्यंत बेटा जी,हमारे समधी परिवार,मेरे घर की व्यवस्था टीम,चना भाई और भूल चूक से कोई छूट गया हो तो क्षमा पर सभी ये सहयोग से ये सेवा पूरी हुई।
गजब का सहयोग और आज्ञापालन मेरे घर में मैंने देखा,प्रत्यक्ष प्रमाण जिसका पूरा पूरा श्रेय मैं मेरे गुरु श्री ए नागराज जी को नमन और कृतज्ञता पूर्वक दूँगी। ये सब उनके मार्गदर्शन और सह-अस्तित्व के पठन और जीने से संभव हुआ।
मेरे श्रीमान जी को धन्यवाद की आखरी 2 माह वो अपने पिताजी से सारे शिकवे भूल के सेवा किये और परिवार व्यवस्था में सहयोग किए।
नीति
रायपुर
27th March 2025