मानव बंधुओं ! मैं अपने में से ही स्वे’छापूर्वक विगत वांड्मयों को समझा हूं। इसमें और किसी का दबाव नहीं रहा। समझने के बाद मेरी एक कामना हुई। कैसी होनी चाहिए यह धरती ? उसके लिए मैं अपने में ही एक उद्गार पाया वह है ‘‘भूमि स्वर्ग हो, मानव देवता हो ! धर्म सफल हो, नित्य शुभ हो।’’

भूमि स्वर्गताम् यातु,
मनुष्यों यातु देवताम्।
धर्मों सफलताम् यातु,
नित्यम् यातु शुभोदयम्।।

ये कैसे उद्गमित हुआ इसकी पृष्ठभूमि मैं आपके सम्मुख रखना चाहता हूँ।

यह शरीर यात्रा एक परिश्रमी, सेवाकारी, वैदिक धर्मपरायण, आर्यश्रेय परिवार में प्रारंभ हुई। यह तो आप सबको विदित है कि हर मानव संतान किसी ना किसी माँ की कोख से पैदा होता है; किसी ना किसी धर्म को मानने वाला होता ही है; किसी ना किसी राज्य संविधान को स्वीकारा ही रहता है। परंपरा में प्राप्त शिक्षा में अर्पित होता ही है और शिक्षाविदों के अनुसार चलकर देखता है। यह आज तक की परंपरा की बात रही। उसी विधि से मैं भी जहां से शुरू किया, जिस परिवार में शुरू किया इसी सबसे गुजरने लगा। इसके साथ रूढ़िगत परंपरा की बातें इसके साथ बैठो, इनके साथ नहीं बैठो, ये करो, ये ना करो ये सब बातें जबसे शुरूआत की है इन रूढ़ियों से हमारा मन भरा नहीं। ये बचपन की ही बात हैं।
पहले-पहले ये बचपन की बात है (बच्चा है) ऐसा बुजुर्ग लोग भी सोचते रहे। कुछ दिनों बाद वे लोग भी बदलने लगे। दृष्टियाँ, मुद्रा, भंगिमा, त्यौरी सब बदलने लगे। मुझे लगा हमारे बुजुर्ग मुझसे प्रसन्न नहीं है। दु:ख का पहला कारण हमारा ये बना। किन्तु प्रसन्न भी कैसे किया जाए भाई ! जैसा ये कहे वैसा ही करें तो भी हम कसौटी लगाने लगे। सब दिन सब समय ये प्रसन्न नहीं रहते हैं ? ऐसा मुझको दिखा है। मुख्य बात यहाँ से है। जब मुझको ये लगने लगा कि हमारे बुजुर्ग हमको ऐसा करो वैसा नहीं करो कहते हैं वैसा खुद करते हैं या नहीं करते है किन्तु सब दिन सब समय प्रसन्न नहीं है। जबकि उनसे ज्यादा आर्यश्रेय, वाङ्मय के विद्वानों को कहीं पाया नहीं जा सकता। ऐसे सब सिद्घियाँ होने के बाद हम हमारे में ये निर्णय कर लिया, किसी भी विधि से रूढ़ियों को तो मानना ही नहीं। यह एक प्रकार से प्रतिज्ञा होने लगी और दूसरा कारण जुड़ गया कि हमारे बुजुर्ग हमको समझा नहीं पाते थे। कुल मिलाकर जितनी बार वे विफल होते गये उतनी ही हमारी अहंता बढ़ती गयी।
ये हमारा अहंता बढ़ने की बात और रूढ़ियों से ना जुड़ने की बात यह सब एक साथ ही चल दिया। इस क्रम से चलकर हम क्या करते ? अब बड़े बुजुर्ग यह दावा करने लगे कि यह वेद को समझा नहीं है, वेदांत को समझा नहीं है, शास्त्र को समझा नहीं है। यह अपने आप में स्वयंभू के रूप में हर रूढ़ियों को हर बात को, नकारता है यह कहाँ तक ठीक है ? इस मुद्दे पर चिंता करने लगे। यह हमारे लिए दूसरे दुख का कारण बना। मैं अब क्या करता ? अब कोई दूसरा रास्ता नहीं रहा तो मैं आर्ष ग्रन्थों के अनुसार वेदान्त को समझा। जिन्हें वे सर्वोपरि मानते थे।

पहला भूमि है वेदान्त, अर्थात माने गये वैदिक विचार का कर्म। वैदिक विचार के अनुसार कर्म उस चीज को मानते हैं जिससे स्वर्ग मिलता है बाकी सबको और कुछ कहते हैं। उपासना उसको कहते हैं जिसमें इन्द्र या अन्य देवी देवता बनना हो, इसके लिए जो उपक्रम है उसे वेद-उपासना कहते हैं। तीसरे शीर्ष भाग में यह कहते हैं कि ज्ञान ही सर्वोपरि है। ज्ञान क्या है ? पूछा तो ब्रह्मज्ञान। ब्रह्म क्या चीज है ? पूछा तो तुम समझोगे नहीं। समझेंगे नहीं तो हम कैसे पार पायेंगे ? बुजुर्गों ने जो कहा है, ‘करो, ना करो’ इसी विधि से पार पायेंगे। क्या करें ? क्या होगा ? यह तुमको समाधि में मिलेगा। समाधि से सारे प्रश्नों का उत्तर मिलता है ये आश्वासन हमको बुजुर्गों से मिला। इस आधार पर मैंने अपने मन को सुदृढ़ किया कि कुछ भी हो एक बार समाधि की स्थिति को देखना ही है और कोई बात बनती ही नहीं है। ना हमारा कोई दावा का मतलब है, ना करने का भी कोई मतलब नहीं है, करो का भी कोई मतलब ना ही है। एक बार हमें अपने प्रश्नों का उत्तर मिलना चाहिए।
वेदान्त को भली प्रकार सुनने के बाद पहले तो ये प्रश्न बना :- बंधन और मोक्ष क्या है? मायावश हम बंधन में रहते हैं ऐसा वे कहते हैं। मोक्ष माने आत्मा का ब्रह्म में विलय होने को कहते हैं। आत्मा कहाँ से आया ? तो बोलते हैं-जीवों के हृदय में ब्रह्म स्वयं आत्मा के रूप में निवास करता है। जब जीव मुक्त होने के लिए अर्थात् आवागमन से यानि स्वर्ग-नरक से मुक्त होने के लिए आत्मा का ब्रह्म में विलय होना ही है, तो यह ब्रह्म जीवों के हृदय में आत्मा के रूप में क्यों बैठ गया ? पहले जब जीव हुआ था उस समय में उनमें कोई आत्मा नहीं था फिर ब्रह्म को उसके अंदर घुसने की क्या जरूरत थी ? ऐसा हमारा वितण्डावाद जैसा हुआ।
क्योंकि हम बुजुर्गों की ध्वनि से ध्वनि नहीं मिलाया इसलिये हमें वितण्डावादी नाम दिया। हमने कहा आप लोग जो समझते हैं वह ठीक है किन्तु इसका उत्तर तो आप प्रस्तुत करोगे। परन्तु इन प्रश्नों का उत्तर नहीं मिला। उसके बाद यही कहा गया कि इसका उत्तर भी तुम्हें समाधि में ही मिलेगा। अब क्या करें ? समाधि के लिये तत्पर होने के लिये हम शनै:-शनै: तैयार हुये। हमारा मन धीरे-धीरे बनता रहा। इस तरह सन्???? ‘ज्ञ्”” से शुरूआत हुई और सन्???? ‘ज्ञ्”- तक हम समाधि के लिये तत्पर हो गये। उस समय और एक स्थिति बनी देश में स्वराज्य आयेगा इसकी संभावना बलवती हुई।

सन्???? ‘ज्ञ्”- की बात है जैसा कि हम लोग आशा करते थे सत्ता का हस्तान्तरण हुआ। उसमें भी बहुत बड़े चिंतनशील थे, बुजुर्ग थे, विचारशील थे उनकी बातों को सुनते रहे और उनमें भी व्यतिरेक आई सफलता के दिन तक। उसमें भी हम पीड़ित हुये। उसके बाद और एक आशा लगी अब हमारा एक संविधान बनेगा। उसमें शायद सही मानव के मूल्यांकन की व्यवस्था रहेगी। मैं अपने तरफ से, स्वयं स्फूर्त विधि से सोचता रहा कि संविधान से कहीं न कहीं मार्गदर्शन मिलेगा।
संविधान की जब रचना हुई तब इस संबंध में अखबारों में जो लेखा-जोखा आता रहा उसको मैं ध्यान से सुनता रहा और समझने की कोशिश करता रहा। सन्??? ‘ज्ञ्कम् तक की सारी बातें सुनकर हमारे मन में आया कि इस संविधान के तले सही मानव का मूल्यांकन नहीं हो सकता। इसका आधार यह बना कि सही मानव का कोई चरित्र ही इसमें व्याख्यायित नहीं है जिसको हम राष्ट्रीय चरित्र कह सकें। अब क्या किया जाये ? पहले से संकट था ही, वेदांत और समाधि, समाधि में ही सब उत्तर मिलना है। इस प्रश्न को भी उसी से जोड़ लिया। समाधि में ही इसका भी उत्तर मिलेगा जिसमें किसी बड़े बुजुर्ग के साथ या विद्वानों के साथ तर्क करने की आवश्यकता नहीं है।
मिलता होगा तो सबका जवाब मिलेगा, नहीं मिलता है तो यह शरीर यात्रा बोध के लिए अर्पित है ऐसा हम अपने में निर्णय लिया। इसके लिए एक व्यक्ति और तैयार हो गयी वह है मेेरी धर्मपत्नी। हम अमरकंटक को एक ऐसी स्थली, प्राण-स्थली, नर्मदा जी का उद्गम स्थली है ये सब सुनते ही थे। उस पावन विचार के आधार पर क्यों न वहीं जाकर यह अंतिम प्रयत्न किया जाए ऐसा सोचकर हम अमरकंटक आ गये। वहाँ आकर हम आगम तंत्रोपासना विधि से साधना करने लगे। इस विधि में समाधि का एक तरीका बताया गया है, जिसमें सारे देवी देवताओं को अपने ही शरीर के हर भाग में देखने की बात है। अपने ही कल्पना से देखने की बात है। उनकी पूजा पाठ करने की बात है। ऐसे ही अपने शरीर के अंग-प्रत्यंगों में जो कुछ भी कल्पना करते हैं ये देवता है वो देवता है इस क्रिया का नाम दिया है ‘‘न्यास’’। इसके मूल में यह सूत्र दिया है ‘देवोभूत्वा देवान् यजमेत’ अर्थात् तुम स्वयं देवरूप होकर देवताओं की अराधना करो। ये बात मुझको बतायी गयी थी। उसके साथ उसी प्रकार से ईमानदारी से करने के लिए हम तत्पर हुए। उसमें जैसा बन पड़ता था वैसा करता रहा। करते-करते एक दिन ऐसा आया कि हम देवी देवताओं से, के सान्निध्य से मुक्त हो गये। ‘‘मैं हूँ’’ इसका बोध था। हमारे पास और कोई विचार नहीं था।

हमको कोई चीज पाना है इसका कोई विचार नहीं था, हमारे पास कोई चीज है यह भी विचार नहीं था, हमको कुछ करना है यह भी विचार नहीं था। एक नयी बात, छोटी सी बात यह घटना हुई। इस घटना होने के कुछ घंटों तक यही स्थिति रही। उसके बाद जैसे ही हमें शरीर का बोध हुआ, समय का बोध हुआ। तब हमको पता चला कि इन तीनों का हमें बोध नहीं रहा था। हमारे पास विचार ही नहीं था। ऐसा मुझको मुझमें विश्वास हुआ। ये होने के बाद मैं सोचने लगा कि मुझे समाधि की स्थिति आ गयी। उस समाधि की स्थिति को हर दिन दोहराता रहा। कई घंटों तक दोहराता रहा और प्रतीक्षा करता रहा हमारे प्रश्नों का उत्तर अब मिलेगा, अब मिलेगा किन्तु वर्षों प्रतीक्षा करने के बाद भी इन प्रश्नों का उत्तर नहीं मिला। यह दूसरी विफलता आई। अब क्या करें ? वेदांत को समझने से उत्तर नहीं मिला, समाधि के बाद उत्तर नहीं मिला, हमारे परिवार में ही जो सर्वोपरि विद्वान है वो भी कुछ बता नहीं पाते हैं ? अब कहाँ जायें ? अब किसी पर आरोप लगाने की जगह ही नहीं रहा इस शिकंजे में हम अपने ढंग से रहे। एक दिन ऐसा लगा कि हम वाकई में समाधि की बात सुना था, हमको यह विश्वास भी हो गया कि समाधि हो गया, किन्तु समाधि यही है इसको हम कैसे दूसरों को बता पायेंगे। इसको हम सुदृढ़ कैसे माने प्रमाण क्या माने ? इसमें बताने की कोई चीज ही नहीं है तो हम प्रमाण कैसे प्रस्तुत करेंगे। यह जिज्ञासा गहराया तो हमको समाधि हुआ कि नहीं इसको आजमाने के लिए हमने संयम नाम की एक क्रिया किया। ये भी सलाह पूर्वजों से मिली थी। ये पातंजली योगसूत्र में उल्लेखित है उसमें लिखा है ‘धारणा ध्यान समाधि त्रयमेकत्रत्वातात् संयमा:।’ इसको कोई भी मेधावी व्यक्ति पढ़कर देख सकता है। जो संयम के बारे में कुछ भी लिखा है हमको स्वीकार नहीं हुआ। अपने ढंग से हम समाधि का एक चित्र बनाया, तरीका बनाया। उस तरीके से हम संयम किया। संयम करने के फलस्वरूप तो जर्रा-जर्रा अस्तित्व हमको, हमारे सामने दिखा, दिखना शुरू हुआ। देखने का मतलब समझना है।
एक परमाणु से लेकर इतनी बड़ी धरती तक क्या-क्या प्रक्रिया से गुजरी उसको हम क्रमवत् देखा है। विधिवत देखा है, उसको आपको बोध करा देते हैं। ये स्थिति मुझमें स्थापित हुई। इसी के साथ परमाणुओं के कतार में एक ‘जीवन परमाणु’ को देखा। वो ‘जीवन परमाणु’ मुझमें आपमें, आज पैदा हुए आदमी में, शरीर छोड़ा हुआ स्थिति में, ये सब समान रहते हैं। ये बोध हुआ शरीर छोड़कर भी जीवन रहता और शरीर के साथ भी रहता है। शरीर के साथ क्यों रहता है। उसमें पूछा जाए तो आगे प्रसंगवश मैं बताऊंगा। इस जगह में हम देखा कि शरीर के माध्यम से ‘जीवन’ अपने को प्रमाणित करना चाहता है। इतना ही सूत्र है इसका। यह जीवन क्या प्रमाणित करना चाहता है ? इसका उत्तर ये मिला; जीवन पहले जीना चाहता है उसके बाद तो जीने के साथ-साथ सुखी होना चाहता है। सुखी होने के साथ-साथ प्रमाणित होना चाहता है।
ये तीन स्थितियां है। इसमें से जो पहली स्थिति है : जीना चाहते हैं वह जीव कोटि में ही पूरा हो जाता है। जैसे ही वो सुखी होना चाहते हैं और प्रमाणित होना चाहते हैं यह मानव कोटि में ही पूरा हो सकता है और कहीं पूरा होता नहीं। इसको मैंने भली प्रकार से देखा है। ये बहुत संतुष्टि की जगह मुझे मिली। उसके बाद उसी के चलते सुखी होने के लिए जो सूत्र रहा - ‘व्यवस्था में जीना’ ये भी देख लिया।
जितना भी जड़ संसार है जिसको हम पदार्थावस्था, प्राणावस्था कहते हैं वह ठोस, तरल और विरल रूप है और जितनी भी प्राणकोशाओं से बनी हुई रचनाएं है उनके मूल में बहुत सारे रस-रसायनों का संयोग होना अनुभव हुआ है। मानव जाति को और भी जो करना है, करते रहेंगे। तो इनसे रचित सभी वस्तुओं का जो संयोग से ही कुल मिलाकर के शरीर रचना की बात देखी। भौतिक रासायनिक वस्तुओं से ही ये जीव-जन्तु और मानव शरीर भी बनता है। तो इन जीव-जन्तु और मानव शरीरों में जो अंतर मैंने देखा कि मानव शरीर रचना में ही मेधस तंत्र पूर्ण समृद्घ हो पाता है। समृद्घ होने का मतलब यह है कि जीवन बहुमुखी विधि से अपने को प्रमाणित करने योग्य मेधस तंत्र बना रहता है। इसको मैंने सटीक देखा है।
ये सब देखने के बाद मुझे लगा जीव कोटि अपनी व्यवस्था में है, व्याख्यायित है, अपने में परिभाषित है। वैसे ही मानव भी अपने में परिभाषित है और व्याख्यायित है और इस ढंग से जीने पर आदमी को सुखी होना बन जाता है ये भी हमको पता लगा। इसी के साथ-साथ वे उत्तर भी मिल गये। वाकई में मोक्ष क्या है ? बंधन क्या है ? जिस बात के लिए हम चले थे उसका उत्तर इसी जगह में मिल गया। कैसा मिल गया ? जीवन हर मानव शरीर को संचालित करता है; क्या प्रमाणित करना है ? पहले बताया सुख को प्रमाणित करना है। सुख को प्रमाणित करने के लिए क्या होना पड़ता है ? समझदार होना पड़ता है। मानव समझकर व्यवस्था को प्रमाणित करेगा और सुख को प्रमाणित करेगा और दूसरी विधि से कर नहीं पायेगा। मैं स्वयं साधना करता रहा सब लोग कहते रहे बड़े नियम से, बड़े संयम से, बड़ा सटीक रहता है। आदमी सब उमड़-उमड़ करके हमको देखने आते थे किन्तु हम गवाही दे रहा हूँ हमारी मानसिकता में कोई भी संयम नहीं रहा। जब तक हम समाधिस्थ नहीं हुए तब तक हममें कोई मानसिक संयम नहीं रहा। हमारे में इतना ही बात रही कि हमें साधना करना है और कोई ऊटपटांग कार्य हम नहीं कर सकते। किन्तु ऊटपटांग बात हमारे मन में ना उपजे ऐसा कोई बात नहीं थी। इस आधार पर मैं दावे के साथ कह सकता हूँ जब तक आदमी समाधिस्थ नहीं हो जाता तब तक ऊटपटांग विचार ना आए ऐसा कोई कायदा अस्तित्व में नहीं है। मानव स्वयं नहीं चाहता कि ऊटपटांग बातें हो, मन में आवें; साधना करने वाला तो कोई चाहता ही नहीं। मैं भी नहीं चाहता रहा फिर भी होता रहा। यही संकट सभी साधकों के सामने आता है। इसे साधक जब तक झेल पाता, झेल पाता है जब झेल नहीं पाता, झेल नहीं पाता है यही मैं कह सकता हूँ यही इसकी समीक्षा है।
अब जब इस मुद्दे का उत्तर मिल गया क्या चीज है बंधन और मोक्ष। बंधन है नासमझी, भ्रम। नासमझी क्या है हम जीव जानवरों जैसा जीएं। जानवर के क्रियाकलापों को मॉडल मान लें। इसी को प्रमाण मान लें उसके अनुरूप यदि हम जीने के लिए प्रवृत्त होते हैं तो स्वाभाविक है हमारे लिए भ्रम है। नासमझी से जीने के लिए परंपरा हमको मजबूर करती है। उसका प्रमाण है कि कामोन्मादी मनोविज्ञान, भोगोन्मादी समाजशास्त्र और लाभोन्मादी अर्थशास्त्र। इसके बीच में चलता हुआ आदमी अपने बच्चे को बहुत अच्छा बने, श्रेष्ठ बने, संस्कारी बने, सुखद बने, सुशील बने ऐसा आशीर्वाद करते हैं। अब इसका-उसका तालमेल कहाँ है। बच्चों को हम जो सिखाते हैं, पढ़ाते हैं उसका और जो आशीष देते हैं उसका तालमेल कहाँ है।
दूसरा प्रश्न राष्ट्रीय चरित्र उसका भी उत्तर मिल गया। क्या मिल गया ? अस्तित्व में हर एक अपने त्व सहित व्यवस्था में है। समग्र व्यवस्था में भागीदारी करता है। ये चीज मानव में भी आने के लिए रास्ता मिल गया। मानव की परिभाषा मिल गयी। ‘‘मानवता’’, जागृत मानव का कार्य-व्यवहार का स्वरूप है। उस कार्य-व्यवहार को हम सूत्रित करते हैं व्याख्यायित करते हैं यही समाजशास्त्र या संविधान कहलाता है। मानव के आचरण को बोध कराना ही समाजशास्त्र का मूल वस्तु है ये हमको समझ में आ गया। इस ढंग से दोनों मुद्दों पर हमको उत्तर मिल गया कि मानवीय आचार संहिता होगी संविधान से। संविधान के रूप में हम राष्ट्रीय चरित्र को पहचान सकते हैं। इसके बाद हम भ्रममुक्त हो जाएं तो मानव की तरह जिया जाए यही भ्रम से मुक्ति है, मोक्ष है। ना बर्फ को पत्थर बनाना, ना पत्थर को पानी बनाना, ना किसी को आशीर्वाद देना है ना कोई चमत्कार करना है ना कोई सिद्घि दिखानी है। अस्तित्व में न कोई सिद्घि है न कोई चमत्कार है इसको हम सटीकता से देखा है। शाप और आशीर्वाद के बीच कराहता हुआ आदमी आज भी करोड़ों-करोड़ों है। तो इसका एक ही उत्तर है जिस क्षण हम आप जागृति की दिशा में एक भी कदम बढ़ाते हैं उसी मुहूर्त में सम्पूर्ण शाप, ताप, पाप तीनों ध्वस्त हो जाता है। इनका कोई कलंक नहीं रह जाता। वह कैसे इसका उत्तर गणितीय विधि से इस प्रकार दिया। जैसे हम गणित को हजार बार गलत किए रहते हैं किन्तु जब सही करना आ जाता है तो जीवन भर के लिए सही हो जाता है। जब तक गलती करते रहते हैं तब तक एक बार जो गलती करते हैं दुबारा वो गलती करते ही नहीं, दूसरी गलती ही करते हैं। उसको भी हम घटना के रूप में देख सकते हैं यदि करोड़ बच्चों के लिए गणित का प्रश्न दिया जाए; सही उत्तर देते हैं तो सबका एक ही होता है। गलत होते हैं तो करोड़ होता है। हर सामान्य व्यक्ति भी इसका सर्वेक्षण कर सकता है। इस ढंग से हम एक और सूत्र पा गये। हम मानव सही में एक हैं गलती में अनेक।
जब अस्तित्व को देखा; महिमा सम्पन्न एक सूत्र हमको मिला। अस्तित्व में दो ही प्रजाति की वस्तुएँ हैं। पहली एक-एक के रूप में जिन्हें गिन सकते हैं जिसको प्रकृति कहा जा सकता है। दूसरा जो सर्वत्र फैला हुआ है इसको हर व्यक्ति एक क्षण में समझ सकता है। प्रत्येक एक-एक वस्तु इस दूसरी वस्तु में भीगा है, घिरा है, डूबा है। इसे व्यापक कह सकते हैं। एक-एक वस्तु (इकाईयाँ) दो प्रजाति की है - एक जड़, दूसरा चैतन्य। चैतन्य वस्तु का मतलब है जीव कोटि - मानव कोटि और जड़ वस्तु का मतलब है - पदार्थावस्था, प्राणावस्था। इसमें सभी खनिज, मिट्टी, धातु तथा प्राण कोशाओं से बनने, बिगड़ने वाली वस्तु हैं। ये जितने भी वस्तुएं है व्यापक वस्तु में भीगी ही है, घिरी ही है, और डूबी ही है इसको मैंने सटीकता से देखा है। व्यापक वस्तु से एक-एक वस्तु अलग होने का अस्तित्व में कोई प्रावधान नहीं है। अस्तित्व में जिसका प्रावधान नहीं है मानव उसे पैदा नहीं कर सकता।
अस्तित्व में जो भी प्रावधान है उसकी उपयोगिता को छोड़कर दुरूपयोगिता की ओर मानव कुछ भी उपलब्धि करता है तो सिवाए बर्बादी के और कुछ हाथ लगता नहीं है। जैसे- युद्घ के लिए हमने बहुत सारी चीज उपयोग किया इससे धरती और मानव को बरबाद करने के अलावा दूसरा हम कुछ नहीं कर पाए। शायद यह सारे वैज्ञानिकों को धीरे-धीरे समझ में आ रहा है। यदि यह पहले समझ में आ जाता तो मानव समृद्घ व सुखी हो सकते थे। अनेक घाट-घाट के बाद नदी समुद्र में आती है, शायद नियति यही रही हो। पहले रहस्यमयी याने आदर्शवाद के बीच आदमी को आना पड़ा, स्वीकारना पड़ा इससे जो राहत मिला वह मानव को पर्याप्त नहीं हुआ। पुन: भौतिकवाद के शिकंजे में आ गये। इसमें भी जो राहत मिला वह सुख, समृद्घि के अर्थ में पर्याप्त नहीं हुआ। आज जो दर्द है यह उसकी बात है। दोनों जगह से हम पूर्ण राहत नहीं पाये, स्वाभाविक है तीसरी आगे सीढ़ी की जरूरत है।
इस ढंग से जो उत्तर पाए बंधन और मोक्ष उसका उत्तर यह बना - ‘‘मानव समझदार होता है तो बंधन से मुक्ति पा जाता है’’। अब समझदार हो कैसे ? इसके लिए जब देखी हुई बात को मैंने देखा कि मुझमें क्या भ्रम है ? ‘मुझमें’ मैं शोध किया, ‘मुझमें’ मैं जाँचा तब पता लगा कि हमारे पास बंधन का कारण कुछ भी नहीं दिखता; तो यही स्थिति क्यों न सबमें पैदा की जाए। सबमें पैदा करने पर कैसा लगेगा ? तब जैसा आपको पहले सुनाया था। भूमि स्वर्ग हो जाएगी, मानव देवता हो जाएगा, सभी धर्म सफल हो जाएगा, नित्य शुभ ही शुभ होगा। परंपरा के रूप में नित्य शुभ होगा। इसमें अपने को हम फिर जांचने लगे क्या हम यह सब संप्रेषित कर पायेंगे ? क्या इसकी लोगों को जरूरत है या नहीं ?
ये सब उसके बाद शुरु हुआ। तो मुख्य मुद्दा जिससे मैं अपने में आश्वस्त हुआ कि संविधान में मानवीय आचरण रूपी मानवीय आचार संहिता को समावेश कर सकते हैं। जिससे मानवीय राष्ट्रीय चरित्र प्रमाणित होगा। इस जगह में हम निश्चित हूँ। मैं स्वयं पारंगत हूँ और प्रमाण भी हूँ। ‘अस्तित्व’ मुझको समझ में आया है आपको समझा देंगे और ‘जीवन’ मुझे समझ में आया है और आपको समझा देंगे। ‘मानवीयता पूर्ण आचरण’ मुझको समझ में आया है आपको समझा देंगे। यदि ये तीनों तथ्य समझ में आता है, माने हम समझदार हो गए। समझदार होने पर क्या हो गए ? समझदार होने से बंधन मुक्त हो गए। कैसा बंधन ? भ्रम रूपी बंधन से मुक्त हो गये। पहले बुजुर्गों ने क्या बताया आवागमन से मुक्ति होगी। आवागमन से मुक्ति का कोई ताल्लुकात नहीं है। न कोई गया है न कोई आएगा। जो है सब अस्तित्व में है।
मरने के बाद भी जीवन अस्तित्व में है और शरीर चलाते समय भी जीवन अस्तित्व में है। कोयला जलाने के बाद भी रहता है विभिन्न स्वरूपों में। ये भौतिक-रसायन शास्त्री इस बात को समझे भी होंगे। नहीं समझें होंगे तो सबको समझना ही होगा, मजबूरी है। इस ढंग से ‘समझदारी’ समझ में आती है। मूलत: ‘वस्तु’ का नाश नहीं होता। उसी आधार पर मैंने मंगल कामना की है कि भूमि यदि सख्त रहेगी, मानव यदि व्यवस्था में जी सकता है यही सार्वभौमिक नित्य मंगल होने का आधार है। इस विधि से जो मंगल कामना मेरे मन में उपजी उसके समर्थन में पूरे अस्तित्व में मानवीयता पूर्ण आचरण ही एक प्रधान मुद्दा है। इससे बड़ा उपकार यह होगा धरती को बिना घायल किये, बिना पेट फाड़े, बिना बर्बाद किए मानव चिरकाल तक इस धरती पर रह सकता है इसकी भी विधि इसी समझदारी से आती है। यदि धरती स्वयं संभल पाती है।
आज तक के बीते इतिहास में मानव कुछ भी अप्रत्याशित घटना घटित किया है वो सारी घटनाएं नासमझी से ही घटित हुई है। अभी धरती को जितना घायल करने की बात हुई, धरती का पेट फाड़ा गया, धरती को बुखार उत्पन्न किया, धरती की सतह पर अनेक प्रकार की विकृतियाँ तैयार की। उसके फलस्वरूप नदी, नाला ये सब बर्बाद हो गये, हवा पानी को बर्बाद कर दिए और इससे जो आदमी त्रस्त हो रहे हैं ये हम आप सबको विदित ही है। जब तक धरती कष्टग्रस्त रहेगी तब तक धरती में रहने वाले समस्त वनस्पति, समस्त जीव, और मानव सभी कष्टग्रस्त होंगे ही। धरती को घायल करके आदमी स्वस्थ रहे, सुखी रहे इसकी परिकल्पना कितने अ’छे सोच किए होंगे आप ही सोच लीजिएगा। अब इससे आगे की शुभ बात यह निकलती है कि यदि हम धरती को तंग करना बंद कर देते हैं तो आश्वस्त होने का मुद्दा है कि इस धरती की सतह में जो सम्पदाएं हैं वे अपने आप में इस धरती के आदमियों के जीने के लिए पूरी पड़ती है। गलती, अपराध, द्रोह, विद्रोह ये सब चीज मानव की नासमझी का दोष है। ये समझदारी की उपज नहीं है इसकी गवाही यही है मानव असंतुलित, धरती असंतुलित, नदी-नाला, पहाड़, जंगल सब असंतुलित है। हम मानव विज्ञान युग में यह सब अपराध कर चुके हैं उसके बाद भी डींग हाँकने में बाज नहीं आए और सोचते हैं हम विज्ञान से ही अच्छा ठोस पायेंगे जबकि धरती से ये मानव जाति कूच होने की जगह पर आ गयी है। इस पर ध्यान देने की बात है। जब भी इस समस्या से बचना चाहेंगे आदमी को समझदार होना ही होगा। दूसरा कोई ठौर नहीं है। नासमझी से अपराधों का रोकथाम होता नहीं चाहे राष्ट्रीय संविधान विधि से ही हो, अपराध तो अपराध ही है। अभी धरती की छाती पर जितने भी राष्ट्र निवास करते हैं सभी राष्ट्रों का अपना एक संविधान रहता है। सभी राष्ट्रों के संविधान में तीन मुख्य मुद्दे हैं और एक वचन है, महावाक्य है, वो है ‘शक्ति केन्द्रित शासन’। शक्ति केन्द्रित शासन की जो व्याख्या है उसमें गलती को गलती से रोकना, अपराध को अपराध से रोकना, युद्घ को युद्घ से रोकना यही तीन कर्म है। इन तीनों कर्मों से कहीं भी ऐसा नहीं दिखता है कि हम अपराध से मुक्ति पा गए। ये तीनों चीजें अपने आप में हर दिन, हर माह, हर वर्ष, हर शताब्दी और मजबूत होती जाती है। युद्घ की मजबूती, अपराधों की विपुलता, गलतियों की कतार ये ही इतिहास में भरी हुई हैं। पन्ने रंगे हुए हैं। ये गवाही है। अगर हम इनका समाधान खोजते हैं तो इसके मूल में पाते हैं इन सभी परिस्थितियों को बनाने वाला केवल आदमी ही है। दूसरा महत्वपूर्ण कारण है ‘धर्म संविधान’। सम्पूर्ण धरती के जितने भी धर्म संविधान हैं उसमें यह माना गया है आदमी जो मूलत: पापी, अज्ञानी, स्वार्थी होता है। जबकि वास्तविकता इससे भिन्न होती है। तो पापी को तारने के लिए, अज्ञानी को ज्ञानी बनाने के लिए, स्वार्थी को परमार्थी बनाने के लिए सभी धर्म संविधान अपने-अपने ढंग की युक्तियाँ, चरित्र, कर्तव्य, दायित्व और कर्मकाण्ड आदि कुछ भी बनाये है। यह भी एक बहुत स्पष्ट घटना है। इनका परिणाम क्या हुआ ? अभी तक कोई अज्ञानी ज्ञानी हो गया ऐसा मानव जाति ने पहचाना नहीं। स्वार्थी परमार्थी हो गया ये भी प्रमाण मिला नहीं। पापी पाप से मुक्त हो गया यह भी प्रमाण नहीं मिला।
मैं आपको इसके पहले कुछ बताया था। समाधि पर्यन्त तक साधना है। साधना काल में, मानव में वैचारिक समाधानित होना बना ही नहीं रहता, मन उद्वेलित रहता ही है, क्योंकि मानव समस्या से पीड़ित होकर ही तो समाधि की ओर दौड़ता है। समाधि तक प्रयत्न करते हुए ही आदमी की ऊँचाई दिखाई पड़ती है। साधनाकाल में मानव को तमाम प्रकार की ऊटपटांग बात आती है समाधि के बाद उनका शमन होता है। विकल्प विधि से अध्ययन, पारंगत, प्रमाण विधि है।
समाधि के बाद मानव को कुछ करने की इच्छा होती ही नहीं, कुछ पाने की इच्छा होती ही नहीं, कुछ रखने की इच्छा होती ही नहीं ये भी बात देखी गयी है। तो हमको कैसे इच्छा हुई ये सब तैयार करने के लिए। मैं आपको पहले ही विनय कर चुका हूँ कि मैं मुक्ति के लिए, स्वर्ग के लिए तो समाधि किया नहीं था मैं मेरे प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए समाधि के लिए प्रवृत्त हुआ था। समाधि में प्रश्नों का उत्तर मिला नहीं तो मुझे समाधि हुई या नहीं इस बात को जांचना शुरु किया। इसी जांच में ये सब चीजें समझ में आ गयी। मानव के पुण्यवश, मानव के भविष्यवश, मानव के सर्वशुभवश, सर्वकल्याणवश ये बात निकल के आ गई। ये किताबों से नहीं निकला है। ये सच्चाई है। बुजुर्गों ने हमको इतना ही मार्गदर्शन किया था कि समाधि से ही उत्तर मिलेगा। समाधि मुझको हुआ या नहीं, इसको प्रमाणित करने के लिए हमने संयम किया और उसी के बलबूते ये बातें निकल आई। मानव की समझदारी तरंगवत है।

ए. नागराज
अमरकंटक (म.प्र.)

This is an excerpt from the book “Jeevan vidya:ek parichay” written by A.Nagraj and first published in 1999.

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