- लिंग भेद का प्रश्न स्त्री पुरुष समानता का प्रश्न नहीं परंतु मानव जाति में समानता का प्रश्न है प्रश्नों को भी सार्वभौमिक रूप में पहचान और उनके उत्तरों को सार्वभौमिक रूप में पहचाने जाने की महत् आवश्यकता है।*
अनंत ब्रह्मांड के अंग भूत इस धरती पर पदार्थ अवस्था, प्राण अवस्था ,जीव अवस्था तीनों एक दूसरे के पूरक विधि से सह-अस्तित्व को प्रमाणित करते हैं ।परस्पर पूरकता ही संबंध है यह तीनों अवस्थाओं के संतुलन और पूरकता के प्रमाण के रूप में दिखाई देता है।
मिट्टी पानी का संरक्षण पाकर के बीज अंकुरित होता है और बीज जब वृक्ष बनता है तब अपने पत्तों को गिरा करके धरती से जितना लेता है उससे ज्यादा वापस कर देता है, और धरती को और समृद्ध कर देता है।
इस प्रकार से क्योंकि धरती समृद्धि थी इसलिए उसने बीज को अंकुरित होने के लिए वातावरण तैयार किया, और वनस्पति संसार ने भी समृद्धि को प्रस्तुत करते हुए धरती को और भी समृद्धि किया इस प्रकार से दोनों अवस्थाओं ने एक दूसरे को समृद्ध किया।
मानव जाति में भी समृद्धि को पहचानने की आवश्यकता है
क्योंकि धरती की जो पोषण क्षमता है वह उसकी उर्वरक क्षमता के साथ है।
समृद्ध मानसिकता ही पोषण कर पाती है वरना अंतर्द्वंद्व से ग्रस्त मानसिकताएं संग्रह को ही प्रमाणित करती है।
समृद्धि मानसिकता ही समृद्धि को प्रमाणित करती है और फिर वह समृद्धि जो है परंपरा में सूत्रित हो जाती है पदार्थ अवस्था और प्राण अवस्था के समृद्धि के फलन में जीव अवस्था और ज्ञान अवस्था अर्थात मानव परंपरा इस धरती पर अवतरित हुई।
लेकिन मानव के आगमन के साथ इस धरती पर नियम नियंत्रण संतुलन के अर्थ में काम नहीं हुआ क्योंकि मानव अपने जीने के नियम को नहीं पहचान पाया और सहस्तित्व के विरुद्ध अपने आप को प्रस्तुत किया।
मानव तीनों अवस्थाओं के साथ अपनी पुरकता को प्रमाणित नहीं कर पाया और परिवार ,समाज ,राष्ट्र और अंतरराष्ट्र में भी पुरकता को और सह अस्तित्व को प्रमाणित नहीं कर पाया
सह अस्तित्व को न समझने के कारण मानव वैचारिक रूप से अंतर्द्वंद्व का शिकार है।
परिवार में भेदभाव मानसिकता से ग्रस्त है श्रेष्ठ नेष्ट से ग्रस्त है समाज को भी पहचान नहीं पाया समुदाय मानसिकता में जी रहा है।
राष्ट्र की कल्पनाएं सीमागत है इस प्रकार से परस्पर विरोध बना हुआ है सह अस्तित्व को यदि देखें तो पदार्थ अवस्था प्राण अवस्था और जीव अवस्था में आपस में पूरकता है और मानव जाति इन तीनों के कारण से मानव का अस्तित्व हैं ।
लेकिन मानव जाति ने प्रकृति की व्यवस्था में हस्तक्षेप करके इन तीनों अवस्थाओं की संतुलन को पुरकता विधि में बाधा पहुंचाई है और स्वयं भी संकटग्रस्त हो गया है।
इस कारण से अस्तित्व सह अस्तित्व है इस बात को समझने की महत आवश्यकता है।
आदर्शवादी चिंतन जो मानव जाति में हुआ उसके केंद्र में ईश्वर था भौतिकवादी जो चिंतन हुआ उसे चिंतन के केंद्र में पदार्थ था सह अस्तित्व के केंद्र में मानव है क्योंकि मानव ही विचार करता है आदर्शवाद ने परिवार को मोक्ष में बाधा के रूप में समझा और मोक्ष आदर्शवाद का अंतिम लक्ष्य था
भौतिकवाद में परिवार को जीने की जगह न मानकर भोगने की जगह के रुप में स्वीकार किया
भोग मानसिकता में शरीर प्रधान हो जाता है सुविधा प्रधान हो जाती है संबंध वरीय नहीं रहते हैं ।
जबकि मानव को संबंध में विश्वास पूर्वक जीने की आवश्यकता है ।
विश्वास के अभाव में ही मानव जाति में सभी प्रकार की समस्याएं हैं।
मानव जाति मानव जाति ज्ञान अवस्था की इकाई है और ज्ञान की विवेक की विज्ञान के स्पष्ट के अभाव में मानव जाति सहस्तित्व को प्रमाणित नहीं कर पाएगी।
मानव परिवार में जन्म लेता है परिवार परिवारों के बीच संबंध को समाज कहते हैं।
और मानव मानव के बीच संबंध को परिवार कहते हैं।
इस प्रकार से विश्व परिवार की अविभाज्य इकाई के रूप में परिवार व्यवस्था होती है।
यदि हम थोड़ा सा भी सजग दृष्टि से देखें और विचार करें तो यह बात समझ में आती है कि परिवार में जिस प्रकार के मानसिकताएं स्थापित रहती हैं वही समाज में व्यवस्था में परिलक्षित होती है।
इसलिए अभी मानव चेतना के विकास के अध्ययन की आवश्यकता है मानव की जीने के नियम को पहचानने की आवश्यकता है जिसके आधार पर समाधान सूत्रित हो सके।
अस्तित्व में केवल समाधान का ही स्वरूप प्रमाणित है तीनों अवस्थाओं में तीनों अवस्था में कोई समस्या दिखाई नहीं देती है मानव भी सह अस्तित्व को समझ करके सार्वभौमिक समाधान को पहचान सकता है और मानव जीने के चारों आयाम अनुभव विचार व्यवहार और प्रयोग।
और पांचों स्थितियां व्यक्ति, परिवार, समाज राष्ट्र और अंतरराष्ट्री अपनी भागीदारी को मानव के स्वरूप में प्रमाणित कर सकता है।
लिंग भेद मानव जाति के सार्वभौमिक स्वरूप की स्पष्ट का अभाव ही है या यूं कहने की ज्ञान की स्पष्टत का अभाव ही है।
मानव में वैचारिक क्षमता सभी में समान है।
वैचारिक स्पष्टता के साथ स्त्रियों और पुरुष दोनों ही विवेक संपन्न हो करके मानव चेतना में जी करके भेदभाव ग्रस्त मानसिकता से मुक्त होकर के समाधान कार्य मानसिकताओं में जी सकते में सफल होंगे ऐसा समझ में आता है।
विवेक जो है वह संबंधों की स्पष्टत ही है संबंध में जीने के नियम ही है।
बौद्धिक नियम असंग्रह, स्नेह विद्या ,सरलता अभयता के साथ मानव में वैचारिक स्थिरता का प्रमाण आता है।
सामाजिक नियम स्वधन स्वनारी ,स्व पुरुष।
के साथ ही जी करके परिवार व्यवस्थाएं सफल हो सकती है।
संबंधों के रूप में समाज है और संबंधों के रूप में ही अर्थव्यवस्था को देखे जाने की आवश्यकता है स्त्रियों का जो श्रम परिवार व्यवस्था में लगता है उसके मूल्यांकन की आवश्यकता है
अभी वर्तमान का अर्थशास्त्र प्रतीक मुद्रा पर आधारित है
जबकि प्रतीक के आधार पर मानव वस्तुएं ही खरीदता है
और वस्तुओं का जो प्राकृतिक स्रोत है वह धरती ही है वस्तुओं पर मानव जो श्रम नियोजित करता है उसमें जो श्रम का मूल्य वह लेता है उसके आधार पर अर्थव्यवस्था चलती है।
मानव का मानव के साथ संबंध है और धरती के साथ संबंध है इसलिए सामाजिक आर्थिक व्यवस्थाओं को संबंधों के आधार पर पहचाने जाने की जरूरत है यदि धरती की समृद्धि समाप्त होती है तो पोषण समाप्त होता है उसकी उर्वरक क्षमता में बाधा ही धरती की समृद्धि की में बाधा है।
जब तक मानव मानव के संबंध और धरती के साथ मानव के संबंध और उसमें जीने के नियमों की स्पष्ट का अभाव रहेगा आर्थिक सामाजिक संरचनाओं अपने प्रयोजन को स्पष्ट नहीं कर पाएंगे
मानव चारआयाम अनुभव विचार व्यवहार और प्रयोग मैं जीता है ।
विचार का प्रयोजन सर्वतो मुखी समाधान है सर्वतो मुखी समाधान का मतलब होता है कि मानव व्यक्ति, परिवार ,समाज राष्ट्र, अंतर्राष्ट्र में जो भागीदारी करता है उसके सार्वभौमिक नियमों की पहचान के साथ जी सके; और उसके जीने में समस्या सूत्रत ना हो।
व्यवहार का प्रयोजन संबंधों में विश्वास की स्थापना है।
ज्ञान की स्पष्टता के अभाव में मानव जाति विश्वास पूर्वक की पानी में सफल नहीं हुई है।
प्रयोग या व्यावसायिक क्रिया जो मानव जाति में है जो शरीर पोषण संरक्षण के अर्थ में है उसे क्रिया को मानव संबंध के अर्थ में और धरती के साथ संबंध के अर्थ में या प्रकृति के साथ संबंध के अर्थ में पहचान के साथ आर्थिक व्यवस्थाएं सफल हो सकती है
समझ से समाधान की पहचान होती है जिससे पोषण के नियमों की जानकारी मानव जाति को होती है।
और जैसे एक परमाणु अपनी जगह पर रहते हुए अनंत ब्रह्मांड के स्तर पर भागीदारी करता है।
और समाधान को सूत्रित करता है उसी प्रकार से मानव जाती परिवार में जीते हुए बौद्धिक, सामाजिक प्राकृतिक नियमों के पालन के साथ इस धरती के चारों अवस्थाओं के संतुलन के साथ समग्र व्यवस्था में भागीदारी को प्रमाणित कर सकते में सफल हो सकता है।
नस्ल, रंग जाति भाषा मत पंथ संप्रदाय के मानसिकता से मुक्त होकर के ही समानता के मुद्दों को पहचाना जा सकता है।
- असमानता के प्रश्न को केवल नारी के प्रश्न के रूप में ना देखा जाए उसे मानव जाति के प्रश्न के रूप में देखा जाए।*
हर मानव को शिक्षा, स्वास्थ्य और उत्पादन के अवसर की सुलभता के साथ ही समानता के बिंदुओं को प्रमाणित किया जा सकेगा।
वर्ण लिंग भेद के साथ तमाम प्रकार की भेदभाव कारी मानसिकताएं पूरी मानव जाति के लिए समस्या का कारण बनी हुई है।
लिंग भेद उनमें से एक है।
समानता के सार्वभौमिक बिंदुओं की पहचान आवश्यक है मानव जाति में आशा विचार इच्छाएं स्त्री पुरुष सभी में समान रूप से हैं
शरीर के आधार पर पुरुषों के बीच भी सामानता नहीं हो सकती तो स्त्रियों के बीच होने का और स्त्री पुरुष के बीच होने का प्रश्न ही नहीं उठता
समानता के सार्वभौमिक बिंदुओं के पहचान की आवश्यकता है।
मानव में विचार व्यवहार क्रिया सभी में समान है ।
इस आधार पर मानव जाति में समानता के बिंदुओं की तलाश के साथ सामाजिक आर्थिक संरचनाओं को पहचाने जाने की आवश्यकता है जो सह अस्तित्व के अर्थ में है हो पुरकता के अर्थ में हो ना कि एक दूसरे के विरोध में।