स्वार्थ का जाल
माया के इस जाल में, मानव उलझता जाए,
धन, पद, बल की चाह में, खुद को ही भरमाए।
सुविधाओं की दौड़ में, सुख को है खोजता,
पर अंतर्मन की शांति को, हर पल है खोता।
प्राणभय, पदभय, मानभय, धन का है घेरा,
अस्थिरता से घिरा, हर पल मन है मेरा।
रिश्तों की ये डोर भी, स्वार्थ से है बँधी,
प्रिय, हित, लाभ की खातिर, हर सीमा है लांघी।
रूप, धन, पद की चाह में, जीवन है बिताता,
पर अंत में खाली हाथ, पछताता रह जाता।
सुख की ये मृगतृष्णा, कभी न तृप्त होती,
नैसर्गिक नियमों की, मानव न समझता ज्योति।
सह-अस्तित्व का पाठ, वो है भूलता जाता,
प्रकृति का संतुलन, वो है बिगाड़ता जाता।
आओ, हम सब मिलकर, इस भ्रम को तोड़ें,
आंतरिक शांति की ओर, अपना मुख मोड़ें।
सह-अस्तित्व का ज्ञान, भय को दूर भगाए,
समष्टि का अंश हम, यह सत्य समझाए।
प्रेम, करुणा, दया से, जीवन को सजाएँ,
सच्चे सुख की राह पर, मिलकर हम जाएँ।
.... विनोद मधुकर म्हात्रे
वरोडा,चंद्रपुर, महाराष्ट्र.