आदरणीय नागराज जी का स्मरण आते हो अनेकों प्रकार की यादें सहसा हो मुखरित हो उठती हें। उनके
साथ बिताए हुए पलों की मधुरता, संवाद की गंभीरता तथा चाय, काफ़ी या भोजन के लिए आग्रह का ध्यान
अनायास ही अंतःकरण को झकझोर कर रख देता है, आंखें डबडबाने लगती है। उनके साथ बिताए हुए क्षणों में से
किसका जिक्र किया जाय, यह ख्याल आते हो जैसे अनेक विचारों में प्रथम आने की प्रतियोगिता प्रारंभ हो जाती
है। कुछ काल के लिए तो किं कर्तव्य -विमूढ़ जैसी स्थिति का सामना करना पड़ता है। जैस तैसे, साहस कर,
कलम उठा कर ( महावरा ~ आज-कल संगणक स्टार्ट कर) लिखने का प्रयास किया भी जाये तो उनका बाल-
सुलभ भोला-भाला, किन्तु ऋषि सम स्थितप्रज्ञ पैनो नजरों से घूरता हुआ, चेहरा सामने आकर स्थिर हो जाता हैl
चलचित्र के किसी दृश्य को जैसे धीमो गति से चलाकर रोक दिया जाय, वैसे हो पूज्य बाबाजी अछोटी में
अंजनीभाइ - मोनाभाभी के घर के बोच वाले कमरे के पलंग पर, या अमरकंटक के घर के पूरवोत्तर दिशा में कोने
वाले कमरे या हाल में पलंग पर ( मेरी मुलाकात अधिकतर इन्हो दो जगह पर रहो , सफ़ेद बनियान पहने हए
कमर को ६ ७ तकियों से टेके हुए, बैठे हुए दिखते हैं। शरोर का निचला भाग चादर से ढका होता है तथा दो-चार
जिज्ञासु हाथ- पैर, सर, कमर व पोठ को सहला -दबा रहे होते हेँl और बाबाजी जैसे पूछ रहे हों ` समझ गए हो
क्या१ ” या फिर, ” कहो, कुछ अच्छी बात बताओ१ ” किचित लज्जा की बात तो यह है कि इन प्रश्नों के उत्तर देने की
सोचते हो आज भी नजरें चुरा कर बगलं झाकने की नौबत आ जाती है।
इन सब विचारों के उथल -पुथल के बीच एक और ध्यान जाता है कि यह सब विचार यादें मधुरता
गंभीरता, आग्रह, पैनी नजरें आखिर मन में हैं कि चित्त में या फिर वृत्ति में? यहाँ तो स्वयं को शरोर से पृथक देखने
के लिए हो एडी-चोटी का दम लगाना पड़ रहा है। फिर जीवन के विभिन्न घटकों को स्पष्टता से देखना और फिर
संस्मरण से जुड़ो प्रत्येक घटना को जीवन क्रियाओं के अर्थ में विश्लेषित करना अभी तो दूर की कौड़ी लगता है
तथा इस विचार को जबरन दूर धकेलना पड़ता हे। इन सब वैचारिक झंझावत में किसा एक संस्मरण को लिखने
हेतु चुनना भूसे के ढेर में से सूई को निकालने के बराबर तो नहीं किन्त उतना ही मुाश्किल सा लगता है। यद्यपि इस
शरीर यात्रा में आदरणीय नागराजजी के साथ मेरा सशरीर मिलन संयोग सामान्य मापदंडों के अनसार कछ संक्षप्त
ही कहा जाएगा, तथापि इस अवसर का भी में पूर्ण सदुपयोग कर पाया यह कहना मेरे लिए कठिन होगा। ऐसा भी
नहों कि बेकार गंवाया परन्तु जितना मिला है, उसको संभाल पाऊँ तो भी स्वयं से नजरें मिलाने लायक हो
पाउँगा।
आदरणीय नागराजजी के साथ प्रत्येक अवसर पर मिलने में यदि कोई बात समान या उभयनिष्ठ दिखती है
तो वह यह कि मझे समझने की दिशा में सदैव धक्का देते रहे, प्रेरित करते रहे। उन्होंने तो मेरी योग्यता व पात्रता को
विकासत करने में कोइ कसर नहों छोड़ी; मेरे हो प्रयत्न में भले हो कमी रहो। ऐसा मेरे साथ हा किसो विशषतावश
किया हो, ऐसा बिलकुल भी नहों है। इस सीमित अवधि में भी मेरा देखना रहा है कि यह व्यवहार वह प्रत्येक
जिज्ञासु के साथ सतत करते रहे। आखिर दिव्य मानव का स्वभाव हो ऐसा होता है ~ यह भी उनके जीने से ही
समझा है। मुझे लगता हैप्रत्येक जिज्ञास यह कह पायेगा। पर, और सबकी बात करने के बजाय यहाँ मैंअपनी
बात करता हँ। और फिलहाल तो प्रथम मिलन का वर्णन ही आसान लगता है।
प्रथम मिलन की बात याद करता हँ तो लगता है जैसे कल हो की बात है जब मैं पहली बार अहमदाबाद से
दुरग और फिर दुरग से , अमरकंटक एक्सप्रेस द्वारा, पेंड्रा रोड होते हए पूर्व निधारित टेक्सी से ३१ मई २०१० को रात्रि
लगभग साढ़े दस बजे भजनाश्रम पहुँचा। अजय भाई जैन व नीताभाभी पहले से ही पहुँच गए थे तथा मेरे सलामती
से आने की राह जोह रहे थे। बाद में पता चला कि बाबाजी भी गेरे कुशलता से पहँचने की प्रतीक्षा कर रहे थे। सभी
यह तथ्य जानते हैं कि बाबाजी हर आने वाले का इन्तजार करते हए यात्रा की स्थिति पूछते रहते थे। अजय भाई ने
हो मुझे श्रद्धेय नागराज जो से मिलने की प्रेरणा दी थो ( धन्यवाद अजय भाइ। )। यह कार्यक्रम लगभग तोन महोने
पहले बना था तथा यहा आने के दो उद्दश्य थे। एक तो अमरकंटक में आयोजित जीवन विद्या शिविर में शिविरार्थी
की तरह मेरा पहली बार भाग लेना दूसरे आदरणीय नागराज जी से पहली बार मिलना। मुझे स्पष्ट तो याद नहों है,
किन्तु मेरे अंदर उनकी कुछ धूमिल छवि समाज में विख्यात अन्य बाबाओं जैसी हो रही होगी। अ्थांत, न तो मुझे
मध्यस्थ दर्शन या जीवन विद्या की ही कोई सार्थक जानकारी थी और न हो नागराज जी का सटीक परिचय। घर
पहँचकर सर्वप्रथम मैने बाबाजी को प्रणाम किया तो तरंत ही ध्यान गया कि यह अन्य बाबाओं जैसे तो किसी कोने
से भी नहों लगते, बाल्कि घर में साधारण दृद्ध बाबा/ दादा नाना जैसे हो ज्यादा प्रतोत होते हें। जो भी, जैसी भी
छवि थी वह प्रत्यक्ष रूप जैसी तो कदापि नहीं थी एवं एक ही क्षण में ध्वस्त हो गयी। उन्होंने हाल-्चाल पूछकर
भोजन करने के लिए तथा तत्पश्चात रात्रि विश्राम के लिए कहा।
अगले दिन प्रातः काल २-३ घंटे फुर्सत से मिलना हुआ। और इसी बोच मुझे २ ज़बरदस्त धक्के दे डाले।
मुझे सोचने के लिए बाध्य कर दिया। । मेरे आतिारक्त ४ ५ और भी लोग बैठे हए थ तथा बाबाजी से अपनी शंका
निवारण में लगे हए थे। मेरो ओर ध्यान देते हए जब उन्होंने मेरे व्यवसाय के बारे मेंजानकारी चाही तो मैंने गर्व से
अपन पद का जिक्र करत हुए तल व प्राकृातक गस स जुड़ हुए अंतराष्ट्राय व्यापार का बखूबा वणन किया। पहल
तो उन्होंन मुझे तोव्र नजरों से घूरा, लगा जैसे अंतरमन तक का स्कैन कर लिया हो, फिर धीरे से बोले ,
कब तक अपराध करते रहोगे? ” यह सुनकर मैं असमंजस में पड़ गया। आस - पास बैठे लोगों की ओर नजरें
घुमाकर कुछ संकेत पाने का प्रयत्न भी किया। पर वे सब अब बाबाजी से बात करने में मशगूल हो गए थे। मैं
सोचने लगा, ” में तो ईमानदारी से एक बहुराष्ट्रोय कम्पनी में बहुत मेहनत से काम करता हू। कोई लूट- खसोट का
तो प्रश्न हो नहों उठता बल्कि मिलावट, धोखाधड़ी भ्रष्टाचार आदि से भी कोसों दूर हॅ। यहा तक कि अ्ध-सरकारी
उपक्रम ( पब्लिक सेक्टर) में सरक्षेत नौकरी को छोड़ने का एक कारण समाज मेंप्रचलित एक यह मान्यता भी रही
थी कि सरकारी लोग बिना मेहनत / काम किये वतन लेते रहते हें (यह मान्यता सही हो ऐसा नहों है, और आज तो
मैं इसे बिल्कुल भी ठोक नहों मानता हूँ)। यह सब मैं खुद में गर्व की बात मानता हूँ। तथा साथ ही एक विपन्न
पारिवारिक पृष्ठभूमि से उठकर साधन संपन्न होने को मैं बड़ी उपलब्धि मानता हूँ। इस बात की समाज में जहाँ- तहाँ
चर्चा भी होतो रहतो है तथा प्रतिष्ठित माने जाने वाले लोग काफ़ी प्रभावित भी होते हें। और यहाँ ये महाशय कह रहे
हैं कि मैं अपराध कर रहा हूँ ...।”
अभी मैं इस ऊहापोह से उभरा भी नहीों था कि एक और ज़बरदस्त झटके ने मझे हिला डाला। मझे बिलकल
भी भान नहों था कि वहाँ क्या वार्तालाप चल रहा था। मैं तो उपरोक्त विचारों के सागर में गोते लगा रहा था।
अचानक बाबाजी मेरी ओर मुखातिब हए और बोले, आप ही बताइए मैं यह कार्य समाज में करूं कि न करूं ? ”
मैंने तोव्रता से विचार किया कि ये कछ अच्छी ही बात कर रहे होंगे तथा अच्छा ही कार्य करने के बाबत विचार-
विमशं कर रह होंगे। और, मुझसे पूछ रह हैं, इस बात का ध्यान कर अहम का ग्राफ जो नोचे गिर गया था, कुछ
ऊपर उठता सा भी लगा। अपने को बुद्धिमान साबित (पदानुरूप) कर्ने के अर्थ में तथा यह सोचकर कि मेरी
सहमति से मेरे अपराधी मानने में शायद कुछ कमी आये, मैंने मुस्कराते हुए जवाब दिया, ` बाबाजी, अवश्य करना
चाहिए। ”
उन्हांन मुझे फिर उसी तोव्रता से देखा और फिर औरों की आर देखकर बोले, यह देखो चेयरमेन, करना
चाहिए, खुद कुछ नहों करेंगे। ” मेरे ऊपर तो मानों घड़ों पानो गिर गया हो। मेैं खिसियानी बिल्ली की तरह इधर-
उधर देखने लगा। ऐसा ख्याल तो नहों आया कि धरतो फट जाये और मैं उसमे समा जाऊँ किन्ु वहाँ से निकलने
की कोई सम्मानजनक तरकीब के बारे में ज़रूर सोचने लगा। तभो कमरे में एक सज्जन ने जो मध्यम कद के थे व
सफेद कर्ता- पायजामा पहने थे, प्रवेश किया। सरलता जैसे उनके पोर- पोर से झलक रहो थी। उन्होंने बाबाजी को
चरण स्पशं कर नमस्कार किया और पलंग के एक काने पर बैठ गए। बाबाजा तुरत हो उनकी आर मुखातिब हुए
और बोले ” कहो अंजनी कितने लोग आ गए हैं? क्या प्लान है ? कब शिविर शुरू कर रहे हो?” अंजनी भाई ने
एक- एक कर पूछे हुए प्रश्नों का उत्तर देना शुरू किया तो जैसे मेरो जान मेंजान आ गयो। मैंने तुरंत ही अजय भाई
को चलने का इशारा कर, अंजनीभाई और बाबाजी के वा्तालाप के दौरान उचित ठहराव देख, चलने की इजाज़त
मांगी, ` बाबाजी, मुझे भी शिविर में जाना है, में चलता हूँ। ” उन्होंने मेरी ओर देखकर कहा, ठोक है फिर आना। ”
और फिर अंजनी भाई से बात करने लगे।
कमरे से बाहर निकल कर मैंने चैन की साँस ली। दोपहर का भोजन किया और फिर अंजनी भाई द्वारा
प्रबोधित बहत हो शानदार शाविर में उपास्थित हुआ। वह शशाविर तो झकझाोरने वाला तथा ज़िदगोी की दिशा
परिर्तक रहा हो, किन्तु, बाबाजी द्वारा मुझे कहो गयो दोनों बातें मेरे अंदर लगातार गूंजती रहो और आज भी
अपराधमक्त होकर जीने तथा व्यवस्था की तैयारो में भागोदारी के लिए सतत ध्यानाकर्षण व प्रेरणा की स्रोत हैं1
सुरेन्द्र पाल
रायपुर