सुनो जी!
संग -साथ के इस सफर में,
मौज़ -मस्ती के पहर में,
कभी सहमत,
तो कभी असहमति के लहर में,
अनुकूल- प्रतिकूल डहर में -
कभी बह लिए,
कभी सह लिए,
कभी रह लिए,
कभी कह लिए,
फिर भी अनकहा जो रह गया,
कभी ठहर एक क्षण ,थोड़ा उसको भी तो सुनो जी!
सुनो जी!
जीते हुए परिवार में,
मान - मनुहार में,
तीज -त्योहार में,
हर कार्य व्यवहार में -
कोई हेठ- न जेठ।
बिना लाग लपेट,
दे भाव की भेंट,
सबको समेट -
फिर भी बिखरा - बिखरा जो
रह गया है,
कभी ठहर एक क्षण थोड़ा
उसको भी तो चुनो जी!
सुनो जी!
भागीदारी समाज में,
कुछ कल कुछ आज में,
जड़ मान्यताओं के रिवाज में,
पारदर्शी हो उठे अल्फाज़ में-
सही गलत के मतिरोध से ,
स्वीकृति के शोध तक।
भिन्नताओं के गतिरोध से,
समाधान निर्विरोध तक।
उलझा उलझा जो रह गया,
कभी ठहर एक क्षण थोड़ा
उसको भी तो गुनो जी!
सुनो जी!
सोनाली भारती