अब बच्चे सुन ने लगे हैं 😇
हाल ही में ये प्रश्न पूछा गया कि अब बच्चे बड़े हो गए हैं, ना हमारी सुनते हैं,ना हमारे पास बैठ बात करते हैं,उनके पास समय ही नहीं होता हमारे लिए।
कुछ बुज़ुर्ग हुए लोगों की शेयरिंग थी कि,अब समय नहीं कटता,कुछ समझ नहीं आता क्या करें,कोई आता जाता नहीं,सोचते हैं आत्म हत्या कर लेते हैं।
मेरा ख़ुद का भी यही status था,हाल था।
ऐसे बहुत से क़िस्से,हादसे,दुःखी लोगों की कहानियाँ रोज़ ही सुनने को मिलती हैं।
कहाँ चूक हो गई हम से ? पालन पोषण तो ठीक ठाक ही किया था। अच्छे स्कूल में भेजा,अच्छा खिलाया-पहनाया,कोशिश की कि सभी इच्छाएँ पूरी करें। बीमार पड़े तो सेवा भी की। माता पिता के सारे कर्तव्य पूरे किए। फ़िर क्या हुआ ? जो बनना चाहते थे वो भी बनने दिया। Tution में भेजा। घूमने जाने की जब२ इच्छा की घुमाने ले गए। फ़िर क्या हुआ ? कहाँ चूक हो गई कि अब सुनते ही नहीं है हमारी बात। कहते हैं अभी समय नहीं है बहुत busy हैं। और कभी२ तो पलट के ऐसे जवाब देते हैं कि मन हिल जाता है।
अपनी ये व्यथा-कथा किस को बताएँ ? इसका क्या समाधान है ? बच्चों की आदतों को कैसे बदलूँ ? क्या करूँ कि वो थोड़ी देर साथ में बैठ कर पूछ लें कि माँ-पापा,साथ२ चाय पीएँ ?
कहाँ क्या कमी रह गई ?
मैं 20 वर्ष की थी जब मेरी शादी हुई थी,2 साल बाद पहली संतान हुई और 29 वर्ष की मेरी आयु तक तीनो संतान हो गईं। संतानों को क्यूँ जन्म दिया ? हमारी ज़िंदगी का क्या लक्ष्य है ? हम क्यूँ पैदा हुआ ? इन सब प्रश्नों का उत्तर मेरे पास तब नहीं था। बल्कि,ये प्रश्न भी हो सकते हैं ऐसा भी विचार नहीं था। हमारे पास क्या,हमारे माता पिता,उनके माता पिता के पास भी शायद ही रहा हो। exception रहते ही हैं,पर ऐसा अधिकतर लोगों के साथ होता ही है।
इसलिए शरीर को जन्म देना तो आ गया,पर बच्चे जिस अपेक्षा से हमारे परिवार में जन्मे हैं,उस अपेक्षा की समझ हमको होती नहीं है,इसलिए parenting पूरी नहीं होती,बच्चों के साथ न्याय नहीं होता और जब बच्चे बड़े हो जाते हैं,तब तक काफ़ी घरों से चिड़िया खेत चुग चुकी होती हैं। हम physical etiquettes तो सिखा देते हैं पर संस्कार नहीं डाल पाते,या पता भी नहीं होता इन दोनो में क्या अंतर होता है।
बच्चा/बच्चे क्या चाहते हैं,माता-पिता और परिजनों से ? मेरे 1 1/2 वर्ष के पोता बेटा जी से जब मैं पूछती थी कि आप को प्यार चाहिए या डाँटू,ग़ुस्सा ? और वो तुतलाते हुए,पूरी मासूमियत से कहते थे कि प्यार चाहिए। अपने बच्चों से ये मैंने पूछा ही नहीं था कभी। बल्कि उनपे ख़ूब ज़ुल्म किए मैंने-नासमझी में। भीतर के सारे frustrations,failure,unfulfilled dream,irritations,sadness,fearfulness सब अपने शरीर और बच्चों पे निकलता था। parenting में बच्चों में भी यही transfer होता था।
कई लोग कहते हैं कि आज की युवा पीढ़ी के साथ जीना बहुत कठिन है। और age difference/gap,generation gap आ ही जाता है। जब मेरे माँ-पिताजी नहीं सुनते समझते थे तब मैं भी यही सब जुमले कहती थी।
मेरे साथ (और कई लोगों के साथ) बच्चों के पोषण-संरक्षण के समय,बड़ी बड़ी घटनाएँ भी हो गईं हैं/हो गई होंगी,होंगी भी,भूल वश,illusion वश। बच्चों को बड़ा करने के दौरान परिवार का साथ समाधान के रूप में नहीं मिला। कटाक्ष ही मिले और ख़ूब ग्लानि हुई,अब ये एक और हिस्सा जुड़ गया अपने आप को उबारने के लिए। Past painful हो गया,ये painfulness generate होती ही गई और इस के साथ फ़्री में मिलता गया है भय और संबंधों से गिले शिकवे। मेरा strict होना बहुत भारी पड़ा पर आज ये स्पष्ट दिखता है कि ये सभी घटनाएँ,कुछ indicate करती थीं/हैं। क्या ? कि मेरे पास अपने आप से-बच्चों से-सभी संबंधों से-स्थिति परिस्थितियों से कैसे deal करूँ ये समझ नहीं थी। अपनी कमियाँ इतनी दिखने लगीं कि जीवन बोझ लगने लगा था। ऐसे में parenting कैसे न्यायोचित होती ?
पर ग़नीमत ये साथ२ जीना,ख़ुश हो कर जीना कैसे possible होगा इसकी सूचना तब मिलने लगी थी जब बच्चे फ़िर भी छोटे ही थे। हमारी ग़लतियों के कारण उनकी पीड़ाओं का ढेर उतना नहीं लगा कि manageable ना हो पर जो भी मेरी ग़लतियाँ थी वो भी कम नहीं थीं। आदमी बड़ा होगा कि ग़लतियाँ इसमें मैंने ख़ुद को choose किया और सही समझने-करने का प्रण लिया। ये पीड़ा असहनीय जो थी।complexes अनेक थे।
नियती सहज योग-संयोग से मिले गुरु और मिला मध्यस्थ-दर्शन,गुरु का मार्गदर्शन और दर्शन का पठन,समझने जीनने में प्रश्न जो रहस्य लगते थे उनका उत्तर पाना सब सरल होता गया,होता जा रहा है।
सभी को अपना comfort zone चाहिए होता है,पर ख़ुद से-ख़ुद ही comfortable नहीं हुए तो पूरी दुनिया घूम आएँ कहीं भी comfort zone नहीं मिलेगा। permanently तो ये मुझ से ही,मुझ में ही काम करने से generate होगा।
मोह वश मैं उन्हें ज़ुल्म भी कर देती थी ये दिखने लगा। मोह और competition कि मेरा बच्चा अच्छा हो ये ख़तरनाक इच्छा हैं/थी ये देख पाई लगातार पठन में। बच्चों की अहर्ता पूर्वक उनको वस्तु देना,समझ देना नहीं आता था। मेरी ही अपनी अलग अपेक्षाएँ थीं उन से।
एक बार मेरी जिज्ञासा पे,बाबा जी ने joint family में रहने के ये तीन सूत्र दिए-
1. बड़ों को,माता-पिता आदि को कभी समझाने की कोशिश मत करना,उनको ज्ञान नहीं देना। फ़िर ? फ़िर कैसे जिया जाए उनके साथ ? आप का जीना ही प्रमाण होगा। ख़ुद पे काम करने से,उनके जीने में दख़ल नहीं देना बन गया,ख़ूब ख़ुशहाली से मन-तन-धन से उनकी सेवा करना,कर्तव्य पूरे करने का design स्वयं स्फूर्त ही अपने भीतर से निकल के आ गया।
2. अपने साथ वालों के साथ,spouse और friends,भाई बहन के साथ उनके जीने में बाधा नहीं डालना *और आप का जीना ही प्रमाण होगा*।इसको समझने के क्रम में,उनके deterioration का कारक नहीं बनना है,ख़ूब ख़ुशहाली के साथ,उनका साथ देना और तृप्ति के साथ कर्तव्य पूरे करना है,ये design समाधान के रूप में स्वतः ही अपने भीतर से आने लगा।
3. अब,अब बारी थी कि बच्चों के साथ कैसे न्याय करें ? कैसे जिया जाय ? कैसे ख़ुद का कार्य-व्यवहार सही हो,ये भयंकर पीड़ा थी मुझ में। उत्तर मिला कि बच्चों के साथ हर बात प्रस्ताव पूर्वक की जाए और आप का जीना ही प्रमाण होगा। इसका अभ्यास करते२ अपने आप ये डिज़ाइन निकल कि प्रस्ताव पूर्वक सभी बात रखने लगी ।जब वे प्रश्न ले कर solution के लिए मेरे पास आए/आते हैं तब ही solution देती हूँ और उनकी receptivity के अनुसार उनके सामने अपनी बात रखने का अभ्यास करने से,ख़ुद के भाव और language, thought process,पे नज़र जाने लगी। बड़ा मज़ा आने लगा।
इन सभी संबंधों के साथ में common factor जो निकल के आया वो था/है आप का जीना ही प्रमाण होगा। तो इस तरह ख़ुद पे काम करना शुरू हो गया। अपनी उपयोगिता समझ आने लगी और जो बोझ था वो satisfaction में convert होने लगा। लगातार 7 पठन-अध्ययन बड़ा सहयोगी हुआ इसमें। अब बच्चे पलट के जवाब देते हैं तो उनकी परिस्थिति का आँकलन कर पाती हूँ। वैसे ऐसा बहुत कम ही होता है। पर यदा-कदा जब भी हो। अच्छा मज़ेदार बात ये भी है कि मेरे पास बच्चे बहुत हैं। जीने के नियम बौद्धिक समाधान के रूप में, solution oriented mentality के साथ ख़ुद के पास होते हैं तो कभी पीड़ा में नहीं जाते। और पहले अभ्यास करते समय जब पीड़ा में गई,टूटी बिखरी तो ख़ुद को संभालने का नियम भी पता होता था।इस तरह ख़ुद का derailment नहीं होता है,track गड़बड़ हुआ भी तो जल्द ही संभालना भी आ जाता है।
ख़ुद के आवेश,anxieties,anger,stress, complexes को resolve कर पाते हैं,cautious रहते हुए भाव-भाषा-body language पे नियंत्रण रहता है तो दूसरों की ये सभी mental deformities भी digest कर पाते हैं बिन दर्द के। अपने भीतर का वातावरण जितना साफ़-सुथरा-सुंदर-संगीतमय होता जाता है अपने आप बाहर संवरते जाता है। मस्त है ख़ुद पे काम करो,ख़ुद से न्याय करो-सामवेदनाएँ नियंत्रित रहती हैं,बाक़ी सारे संबंधों में फ़िर मेहनत नहीं लगती।
हम ख़ुद भी जब अपनी ऊर्जा को waste किए बिना सार्थक कामों में उसको लगाते हैं तो बच्चों को भी अपने अभिभावकों पे गर्व होता है।
बड़े होते हुए मेरे बच्चों ने अपने२ कॉलेज के समय मुझे एक बार फ़ोन पे कहा था, give us one reason to be home,mumma. उस समय मैं तिलमिला गई थी,मेरे बच्चे मुझे कैसे याद रखेंगे ? एक क्रूर माँ के रूप में ? नहीं 🙉 … मेरे ख़ुद का,ख़ुद को दिया ये उत्तर मैं सुन नहीं पाई,सहन नहीं कर पाई।
आज मुझे पता है बच्चों को क्यूँ जन्म दिया। वो भी मेरे ही समान न्याय चाहते हैं,सत्य समझना चाहते हैं,सही कार्य-व्यवहार करना चाहते हैं,और आज मेरे पास उनको ये सब है देने के लिए-इसलिए बस कोई भी बच्चा हो जिसको मैंने जन्म दिया हो या ना दिया हो,मेरे लिए उतना ही महत्वपूर्ण है। ये मेरी उनकी जीवन सहज अपेक्षा है,उसको पूरा करना ही अभिभावक का कर्तव्य-दायित्व है।
प्राथमिकता तय करना आ गया। मैं ख़ुद अपने आप को torture नहीं करूँगी तो किसी को कभी torture नहीं करूँगी। सभी के साथ रहते२ मुझे जो unacceptable है उसको शिष्टता पूर्वक,बिन भाव-भाषा-body language गड़बड़ किए रखना आ रहा है। जीने दे कर जीने का अभ्यास ज़ोरों पर है। अपनी ऊर्ज़ा का उपयोग पहले ख़ुद को ठीक करने के लिए है।
यहाँ तक पहुँचने की यात्रा कठिन थी,क्यूँ कि ख़ुद पे बहुत काम करना पड़ा/अब आसानी से कर लेती हूँ, और अब बच्चे सुनते हैं। हाँ कई बार पहले मुझे कहते थे जीवन विद्या की भाषा नहीं mummy पर आज देखती हूँ कि जैसे२ मेरे जीने में आ रहा है,आचरण स्थिर होता ख़ुद को दिखता है,तो बच्चे मज़ाक़ भी मेरा उड़ा लें,बिन जाने कह दें कि आप तो ऐसे हो तो मेरा भीतर हिलता नहीं है। मेरा मुँह नहीं फूलता और मेरा behaviour नहीं बदलता। कभी२ उनको जीवन विद्या में use होने वाले word use करते देखती हूँ तो मंद मंद मन ही मन मुस्कुरा देती हूँ। सही का Impact होगा ही।
अब बच्चों को बोलूँ या फ़ोन करूँ कि मुझे उनकी ज़रूरत है,वो सुनते हैं,जैसे ही फ़्री होते हैं,मेरे लिए available हो जाते हैं। और नहीं भी सुनते-समझते हैं तो कोई problem नहीं होती। मेरे पास अब बढ़ती उम्र के साथ खूबसूरत लक्ष्य है जिस को पूरा कर के मैं तृप्त रहती हूँ। बच्चे जब मेरा मशवरा लेते हैं और मेरी बात सही होने के बाद भी नहीं मानते तो भी कोई problem नहीं होती क्यूँ कि जो सही है अगर सच में सही है तो होगा ही। जब होगा-घटेगा तब उनका इस तरफ़ ध्यान जाएगा ही,तब अगर वो फँस गए हों तो भी मैं उनके लिए available हूँ ही। ये धीरता न्याय के प्रति,सही के प्रति है अब।
अब चार पीढ़ी के इस परिवार में generation gap मुझे नहीं दिखता।
अब बच्चे सुनते-समझते हैं। मैं उनके reactions को respond ना करूँ,उनकी बातों को शिष्टता पूर्वक disagree करूँ,तो सोचते-समझते हैं।
देर कभी भी नहीं होती। किस बात पे,किस घटना से हमारी समझदारी की,किसी की भी समझदारी की यात्रा शुरू होगी क्या पता,क्यूँ कि समझदार तो हम में से हर कोई होना चाहता ही है,यही नियती सहज है।
हर पल हर क्षण मेरे अच्छे होने के लिए एक अवसर है,हर व्यक्ति स्थिति परिस्थिति मेरे अच्छे होने के लिए एक opportunity है,बस ये विचार सब solve कर देता है।
- ये सब मैं अपने ही reference में लिखती हूँ,इसलिए क़तई भी नहीं कि ख़ुद को महिमा-मंडित करूँ,बल्कि इस लिए कि ख़ुद मैं कैसी थी,ख़ुद में कैसे सार्थक बदलाव आए और ये नियम सभी के लिए समान हैं,इसको share करती हूँ।
नीति
6.09.2022
रायपुर